ज्ञानेश्वरी पृ. 236

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग


अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम् ।
यत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना: ॥24॥

उस समय शरीर के भीतर तो अग्नि की ज्योति का प्रकाश रहना चाहिये तथा बाहर शुक्ल पक्ष, दिन और उत्तरायण के छः महीनों में से कोई महीना होना चाहिये; और इस प्रकार समस्त सुयोग मिलने चाहिये। ऐसे सुयोग में जो ब्रह्मविद् शरीर का परित्याग करते हैं, वे ब्रह्मस्वरूप में मिल जाते हैं। हे धनुर्धर! याद रखो, इस योग की इतनी अधिक महत्ता है और यही मोक्ष तक पहुँचने का सुगम मार्ग है। इस मार्ग का प्रथम सोपान शरीर के अन्दर स्थित अग्नि, द्वितीय सोपान उस अग्नि की ज्योति, तृतीय सोपान दिन का समय, चतुर्थ सोपान शुक्ल पक्ष और फिर पंचम सोपान उत्तरायण के छः मासों में से कोई एक मास है। इसी पंच सोपान वाले मार्ग से ही योगी लोग सायुज्य सिद्धि सदन में पहुँचते हैं। इसीलिये इन्हें शरीर के विसर्जन का उत्तम काल जानो! इसी को अर्चिरादि अर्थात् सूर्य की किरणों वाला मार्ग भी कहते हैं। अब मैं तुम्हें शरीर छोड़ने के लिये अयोग्य समय कौन-सा है, इसके विषय में भी बतला देता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (220-225)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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