ज्ञानेश्वरी पृ. 235

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग

इसी प्रकार शरीर-त्याग के समय के वायु-प्रकोप से जब शरीर के भीतर और बाहर कफ-ही-कफ हो जाता है, जब शरीर के अन्दर की अग्नि बुझ जाती है, उस समय स्वयं प्राणों में भी प्राण नहीं रह जाते, फिर बुद्धि की तो बात ही क्या है? शरीर के भीतर की अग्नि के बिना शरीर में जीवन-तत्त्व रह ही नहीं सकता। जब इस शरीर की अग्नि ही चली गयी, तब यह शरीर ही क्यों और कैसे रह सकता है? उस दशा में तो इसे मिट्टी का लोंधा ही जानना चाहिये। ऐसी दशा में आयुष्य का काल अँधेरे में पड़कर व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है और यह ज्ञात ही नहीं होता कि कब इस देह का अन्त होगा। अब ऐसी दशा में जब व्यक्ति अपने मन में यह सोचता है कि मैं अपनी पुरानी स्मृति जाग्रत् रखूँ और शरीर त्यागकर आत्मस्वरूप में मिल जाऊँ, त्यों ही कफ आदि के कारण मिट्टी का लोंधा बनी हुई इस देह की जीवन-लीला समाप्त हो जाती है और अगली-पिछली सारी यादें चली जाती हैं। इसीलिये जैसे खजाना दृष्टिगत होने से पूर्व ही हाथ का दीपक बुझ जाय, वैसे ही पूर्वकृत योगाभ्यास मृत्यु आने से पूर्व ही नष्ट हो जाता है। कहने का आशय यह है कि ज्ञान का मूलाधार शरीर के अन्दर की अग्नि या उष्णता ही है और मृत्यु के समय इस शरीर में स्थित अग्नि के भरपूर बल की जरूरत होती है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (204-219)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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