श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
इसी प्रकार शरीर-त्याग के समय के वायु-प्रकोप से जब शरीर के भीतर और बाहर कफ-ही-कफ हो जाता है, जब शरीर के अन्दर की अग्नि बुझ जाती है, उस समय स्वयं प्राणों में भी प्राण नहीं रह जाते, फिर बुद्धि की तो बात ही क्या है? शरीर के भीतर की अग्नि के बिना शरीर में जीवन-तत्त्व रह ही नहीं सकता। जब इस शरीर की अग्नि ही चली गयी, तब यह शरीर ही क्यों और कैसे रह सकता है? उस दशा में तो इसे मिट्टी का लोंधा ही जानना चाहिये। ऐसी दशा में आयुष्य का काल अँधेरे में पड़कर व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है और यह ज्ञात ही नहीं होता कि कब इस देह का अन्त होगा। अब ऐसी दशा में जब व्यक्ति अपने मन में यह सोचता है कि मैं अपनी पुरानी स्मृति जाग्रत् रखूँ और शरीर त्यागकर आत्मस्वरूप में मिल जाऊँ, त्यों ही कफ आदि के कारण मिट्टी का लोंधा बनी हुई इस देह की जीवन-लीला समाप्त हो जाती है और अगली-पिछली सारी यादें चली जाती हैं। इसीलिये जैसे खजाना दृष्टिगत होने से पूर्व ही हाथ का दीपक बुझ जाय, वैसे ही पूर्वकृत योगाभ्यास मृत्यु आने से पूर्व ही नष्ट हो जाता है। कहने का आशय यह है कि ज्ञान का मूलाधार शरीर के अन्दर की अग्नि या उष्णता ही है और मृत्यु के समय इस शरीर में स्थित अग्नि के भरपूर बल की जरूरत होती है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (204-219)
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