ज्ञानेश्वरी पृ. 233

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग

हे अर्जुन! वैसे ही इस देह में सोये हुए की भाँति रहने पर भी जिसे लोग पुरुष कहते हैं और पतिपरायणा प्रकृति के साथ एक पत्नी-व्रती होने के कारण भी जिसे पुरुष कहा जा सकता है और इतनी व्यापक बुद्धि रखने वाले वेद भी जिसका घर तक नहीं देख सकते, फिर आँगन देखने की बात तो कोसों दूर है और जिसकी व्यापकता सम्पूर्ण गगन-मण्डल को भी आच्छादित कर लेती है, ऐसा जानकर योगीश्वर लोग जिसे परात्पर कहते हैं, जो एकनिष्ठ भक्तों का घर खोजता हुआ स्वयं आ पहुँचता है, जो शरीर, वाणी अथवा मन से भी दूसरी बात की ओर ध्यान ही नहीं देता, ऐसे एकनिष्ठ भक्तों को जो अनवरत फसल देने वाला उपजाऊ सुक्षेत्र है, हे पाण्डव! जिसके चित्त में यह विश्वास हो चुका है कि यह सम्पूर्ण त्रिलोकी केवल ब्रह्म ही है, उस श्रद्धालु भक्त का जो विश्राम-स्थल है, जो निरहंकारियों को महत्ता प्रदान करता है, जो निर्गुणियों को ज्ञान देता है, जो स्पृहारहित मनुष्यों को सुख का राज्य देता है, जो सन्तुष्टों को अन्न से भरा हुआ थाल देता है, जो संसार की चिन्ता न करने वाले अनाथों की माता की भाँति रक्षा करता है और जिसके घर तक पहुँचने का सरल मार्ग एकमात्र भक्ति ही है, वही वह अव्यक्त और अक्षर-ब्रह्म है।

हे धनंजय! इस प्रकार के वर्णन करके मैं क्यों व्यर्थ विस्तार करूँ। कहने का आशय यह है कि जिस जगह पर पहुँचते ही जीव तद्रूप हो जाता है, जैसे ठण्डक के कारण उष्ण जल भी एकदम शीतल हो जाता है अथवा सूर्य के समक्ष पड़ते ही जैसे अँधेरा भी प्रकाश में परिवर्तित हो जाता है, वैसे ही जिस जगह पर पहुँचते ही संसार का एकदम मोक्ष ही हो जाता है अथवा जैसे अग्नि में पड़ने वाला ईंधन भी अग्निस्वरूप ही हो जाता है, फिर चाहे कितनी ही तलाश क्यों न की जाय, पर फिर भी उसका ईधनपन कहीं नहीं मिलता अथवा हे पाण्डव! एक बार इक्षु रस से शक्कर बन जाने पर चाहे कितना ही बुद्धिमान् व्यक्ति क्यों न हो, किन्तु फिर उस शक्कर से इक्षु का निर्माण नहीं कर सकता अथवा पारस के स्पर्श से एक बार लोहे से सोना बन जाने पर फिर करोड़ो उपाय करने पर भी उस लोहे का वह लोहापन वापस नहीं आ सकता जो पहले विनष्ट हो चुका होता है अथवा एक बार दूध से घी बन जाने पर फिर उससे कभी दूध नहीं बनाया जा सकता, वैसे ही जिस स्थान पर पहुँचकर मिल जाने पर फिर पुनर्जन्म नहीं होता, वही वास्तव में मेरा सबसे श्रेष्ठ धाम है। अपने अन्तःकरण का यह गूढ़ भाव मैं तुम्हें खोलकर और स्पष्ट करके दिखला रहा हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (171-203)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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