श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
इस साम्य में न तो किसी की न्यूनता रहती है और न ही अधिकता। यही कारण है कि उसमें भूत शब्द के लिये भी कोई जगह नहीं रहती। जैसे दही का रूप प्राप्त कर लेने पर दूध का नाम एवं रूप समाप्त हो जाता है, वैसे ही जिस समय जगत् के रूप का उस साम्य में विलय हो जाता है, उस समय संसार की संसारता का भी लोप हो जाता है। पर फिर भी जिस बीज से उस साकार की उत्पत्ति हुई थी, उस बीज में साम्य स्थिति में वह ज्यों-का-त्यों बना रहता है। उस समय स्वभावतः उसे अव्यक्त कहते हैं और उससे जिस आकार का निर्माण होता है, उसी को ‘व्यक्त’ नाम से पुकारते हैं। अव्यक्त और व्यक्त-ये दोनों नाम केवल समझने के लिये बतलाये जाते हैं। परन्तु यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो वे दोनों कोई भिन्न-भिन्न चीजें नहीं है। स्वर्ण को जिस समय गलाकर ढाल दिया जाता है, उस समय उसको पासा कहते हैं। किन्तु जब उस स्वर्ण का अलंकार बन जाता है, तब उस पासे का वह अनगढ़ रूप विनष्ट हो जाता है। परन्तु जैसे ये दोनों ही विकार उसी साक्षीभूत और एक स्वरूप स्वर्ण के ही होते हैं, वैसे ही व्यक्त और अव्यक्त-ये दोनों ही विकार उस एक परब्रह्म में ही होते हैं। किन्तु वह परब्रह्म इन दोनों ही विकारों से परे और अनादि-सिद्ध है, अर्थात् न तो वह व्यक्त है और न ही अव्यक्त; न तो वह नित्य है और न ही अनित्य। वह स्वयं ही समस्त विश्व हो जाता है; परन्तु विश्व का अन्त हो जाने पर भी उसका अन्त नहीं होता। जैसे लिखित अक्षर यदि मिटा दिये जाएँ तो भी उनके अर्थ को मिटाया नहीं जा सकता अथवा जैसे तरंगों के उत्पन्न होने और विलीन होने पर भी जल के स्वरूप की अखण्डता बनी रहती है, वैसे ही भूतमात्र के विनष्ट हो जाने पर भी जो अविनाशी रहता है अथवा उस अलंकार में जिसका स्वरूप गलाकर नष्ट किया जा सकता है, वह स्वर्ण रहता है जिसका स्वरूप गलाने पर भी नष्ट नहीं होता और किसी-न-किसी रूप में बना रहता है, वैसे ही जीवरूपी साकार वस्तु के नष्ट हो जाने पर भी जो सदा अमर ही रहता है[1], |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (170-178)
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