श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
जो विषयों को तिलांजलि दे करके प्रवृत्ति के पाँवों में बेड़ियाँ डालकर सदा मुझे ही अपने हृदय-प्रान्त में रखते हैं तथा मेरे स्वरूप का अनुभव करते हैं और इस सुख के भोगने की दशा में जिन्हें भूख और प्यास कभी नहीं सताती, फिर नेत्र हिलाने के सदृश मामूली बातों को तो पूछना ही क्या है, और इस प्रकार जो अनवरत एकाग्रचित्त होकर मेरे स्वरूप में मिले रहते हैं और मेरी भक्ति करते हैं तथा अन्तःकरण से मेरे साथ संलग्न होकर मद्रूप ही हुए रहते हैं, उन लोगों के विषय में भी यदि यही बात हो कि देहावसान के समय जब ये मेरा स्मरण करें, केवल तभी वे मुझे मिल सकें, तो फिर उपासना का महत्त्व ही क्या? यदि कोई दीन-हीन मनुष्य संकटापन्न होकर निर्मल हृदय से मुझे पुकारे और कहे कि हे नारायण! शीघ्र पधार कर मेरी सहायता करो तो क्या उसकी यह पुकार सुनकर और उसके दुःख से कातर होकर मैं उसकी मदद करने के लिये नहीं दौड़ पड़ता? अब यदि मैं अपने एकनिष्ठ भक्तों की भी ऐसी ही दशा होने दूँ और अवसान काल में तभी उनके निकट पहुँचूँ, जब वे मेरा स्मरण करें, तो फिर भक्ति करने की लालसा किसे रह जाएगी? इसीलिये मैं यह कहता हूँ कि ऐसी शंका को तुम पलभर के लिये भी अपने चित्त में मत आने दो। वे भक्त जिस समय मुझे याद करेंगे। उसी समय मुझे तीव्र गति से उनके सन्निकट पहुँचना ही पड़ेगा। उस अनन्योपासना का बोझ यों ही मुझसे सहन नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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