ज्ञानेश्वरी पृ. 226

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग


अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश: ।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन: ॥14॥
मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता: ॥15॥

जो विषयों को तिलांजलि दे करके प्रवृत्ति के पाँवों में बेड़ियाँ डालकर सदा मुझे ही अपने हृदय-प्रान्त में रखते हैं तथा मेरे स्वरूप का अनुभव करते हैं और इस सुख के भोगने की दशा में जिन्हें भूख और प्यास कभी नहीं सताती, फिर नेत्र हिलाने के सदृश मामूली बातों को तो पूछना ही क्या है, और इस प्रकार जो अनवरत एकाग्रचित्त होकर मेरे स्वरूप में मिले रहते हैं और मेरी भक्ति करते हैं तथा अन्तःकरण से मेरे साथ संलग्न होकर मद्रूप ही हुए रहते हैं, उन लोगों के विषय में भी यदि यही बात हो कि देहावसान के समय जब ये मेरा स्मरण करें, केवल तभी वे मुझे मिल सकें, तो फिर उपासना का महत्त्व ही क्या? यदि कोई दीन-हीन मनुष्य संकटापन्न होकर निर्मल हृदय से मुझे पुकारे और कहे कि हे नारायण! शीघ्र पधार कर मेरी सहायता करो तो क्या उसकी यह पुकार सुनकर और उसके दुःख से कातर होकर मैं उसकी मदद करने के लिये नहीं दौड़ पड़ता? अब यदि मैं अपने एकनिष्ठ भक्तों की भी ऐसी ही दशा होने दूँ और अवसान काल में तभी उनके निकट पहुँचूँ, जब वे मेरा स्मरण करें, तो फिर भक्ति करने की लालसा किसे रह जाएगी? इसीलिये मैं यह कहता हूँ कि ऐसी शंका को तुम पलभर के लिये भी अपने चित्त में मत आने दो। वे भक्त जिस समय मुझे याद करेंगे। उसी समय मुझे तीव्र गति से उनके सन्निकट पहुँचना ही पड़ेगा। उस अनन्योपासना का बोझ यों ही मुझसे सहन नहीं हो सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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