ज्ञानेश्वरी पृ. 225

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग


ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥13॥

इससे ओंकार का स्मरण भी बन्द हो जाता है और प्राणवायु का विलय भी हो जाता है। तत्पश्चात् ओंकार से भी परे रहने वाला एकमात्र शुद्ध ब्रह्मानन्द-स्वरूप ही शेष रहता है। अत: प्रणव ही जिसका नाम है तथा जो एकाक्षर ब्रह्म है, वह मेरा मुख्य स्वरूप है। जो मेरे इस शुद्ध स्वरूप का स्मरण करता हुआ शरीर का परित्याग करता है, वह निःसन्देह मेरा ही शुद्ध शरीर प्राप्त करता है; और जिस समय वह स्वरूप मिल जाता है, उस समय इससे आगे कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। हे अर्जुन! यदि तुम्हारे चित्त में यह आशंका उठ खड़ी हो कि यह कैसे जाना जाय कि देहावसान काल में वह स्मरण होगा ही, जिस समय सारी इन्द्रियाँ सुस्त हो गयी हों; जीवन का समस्त सुख और समाधान चला गया हो, इस प्रकार के साफ-साफ लक्षण दीखने लग गये हों कि बाह्याभ्यन्तर दोनों ओर मृत्यु ने अपना शिकंजा कस लिया है? उस समय आसन लगाकर कौन बैठ सकता है और इन्द्रियनिग्रह कौन कर सकता है तथा व्यक्ति किसके अन्तःकरण से ओंकार का स्मरण करे? ये सब बातें तो सम्भव ही नहीं हैं।” तो तुम्हें इस चीज का खयाल रखना चाहिये कि जो नित्य अखण्ड रूप से मेरा चिन्तन करते रहते हैं, उनके अन्तिम समय मैं स्वयं ही सेवकों की भाँति उनकी सेवा में जुट जाता हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (117-123)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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