श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
जिसे लोग अधियज्ञ के नाम से पुकारते हैं और जिसका निरूपण मैंने अभी तुमसे किया है, उस अधियज्ञ के विषय में जो लोग यह जानते हैं कि वह आदि से अन्त तक मैं ही हूँ, वे अपने देह को उसी मठ के सदृश समझते हैं जो आकाश को अपने अन्दर भी समेटे रहता है और स्वयं भी बाहर के उसी आकाश में रहता है। बस, इसी प्रकार वे लोग ब्रह्मरूप होकर बाह्याभ्यन्तर सर्वत्र-सर्वदा ब्रह्मस्वरूप में ही स्थित रहते हैं। जिस समय वे ब्रह्म के अनुभवरूपी भीतरी घर में दृढ़ निश्चय-कोठरी में प्रवेश करते हैं, उस समय उन्हें ब्रह्म के अलावा बाहर की और किसी चीज का थोड़ा-सा भी स्मरण नहीं रहता। इस प्रकार जो लोग भीतर और बाहर एकरूप होकर मद्रूप हो जाते हैं, उनके लिये बाहर का पंचभूतात्मक शरीररूपी आवरण इस प्रकार ढह जाता है कि उन्हें भान भी नहीं हेाता। जिस समय यह देह खड़ा रहता है, जब उसी समय उन्हें उसकी कोई परवाह नहीं रहती, तब फिर यदि वह ढह भी जाय तो भला, उन्हें उसके ढहने का क्या कष्ट हो सकता है? अब यदि उनका देह ढह भी जाय अथवा विनष्ट भी हो जाय, तो भी उनके ब्रह्म के अनुभव में रत्तीभर की भी कमी नहीं होती। उनकी वह अनुभूति मानो ऐक्य की जीवन्त पुत्तलिका ही होती है। वह पुत्तलिका नित्यता के चौखटे में बैठायी हुई होती है और समरसता के सागर में प्रक्षालित कर वह इतनी स्वच्छ की हुई होती है कि फिर उसमें लेशमात्र भी कहीं मल अवशिष्ट नहीं रह जाता। यदि किसी जलाशय में घट को डुबाया जाय तो वह अन्दर भी जल से भरा रहता है और बाहर भी चतुर्दिक् जल से घिरा रहता है। अब उस दशा में यदि वह घट दैवयोग से टूट जाय तो क्या उसके साथ वह जल भी टूट जाता है? अथवा जब सर्प अपनी कैंचुली का परित्याग कर देता है अथवा गर्मी के कारण व्यक्ति अपने देह में पहने हुए वस्त्र को उतार कर रख देता है, तब क्या कभी उस सर्प या व्यक्ति के अवयवों में भी किसी प्रकार का परिवर्तन होता है? ठीक इसी प्रकार यह नाम-रूप वाला शरीर भी विनष्ट हो जाता है, पर उसमें जो ब्रह्म-नामवाली सद्वस्तु उस शरीरादि के बिना ही स्व-स्वरूप से ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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