ज्ञानेश्वरी पृ. 218

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग

वास्तव में यह बात तो होती ही नहीं। उस समय भी वह स्फटिक-शिला पहले की ही तरह अखण्ड ही रहती है। वह तो केवल केशों के गाँठ के कारण ही विदीर्ण-सी प्रतीत होती है और इसीलिये उस गाँठ के हटते ही वह फिर अखण्ड दृष्टिगत होती है। इसी प्रकार जब अधिभूत इत्यादि का अहंभाव समाप्त हो जाता है, तब परब्रह्म के साथ उसका वह मूल वाला ऐक्य विद्यमान होता है, वही अधियज्ञ मैं हूँ।

हे पार्थ! अपने चित्त में यही भाव रखकर मैंने पहले तुम्हें यह बतलाया है कि कर्मों से ही समस्त यज्ञ उत्पन्न होते हैं। सारे जीवों के विश्रान्ति का यह निष्काम ब्रह्म-सुख का गुप्त भण्डार मैंने आज तुम्हारे सामने खोलकर रख दिया है। सर्वप्रथम वैराग्यरूपी ईंधन लगाकर इन्द्रियरूपी अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिये और तब उसी प्रज्वलित अग्नि में शब्दादि विषयरूपी द्रव्यों का हवन करना चाहिये। फिर वज्रासनरूपी पृथ्वी का शोधन करके इस शरीररूपी मण्डप में मूलबन्धन की मुद्रारूपी यज्ञवेदी बनानी चाहिये। इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त हो जाने पर इन्द्रिय-निग्रहरूपी अग्निकुण्ड में योगरूपी मन्त्र का घोष करते हुए यथोचित अनुपात में इन्द्रियरूपी द्रव्यों को समर्पित करना चाहिये, फिर मन और प्राणवायु के निग्रह को ही इस यज्ञ-विधान का शुभारम्भ मानकर निर्मल ज्ञानरूपी अग्नि को सन्तुष्ट करना चाहिये। जिस समय इस प्रकार ज्ञानाग्नि में सर्वस्व समर्पित कर दिया जाता है, उस समय वह ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञेय वस्तुओं में विलीन हो जाता है और तब केवल ज्ञेय वाले स्वरूप में ही सर्वत्र अवशिष्ट रह जाता है। इस ज्ञेय को ही अधियज्ञ नाम से पुकारते हैं।”

इस प्रकार सर्वज्ञ श्रीकृष्ण ने जो-जो बातें अर्जुन को बतलायीं, वे सब-की-सब बातें शीघ्र ही बुद्धिमान् अर्जुन के समझ में आ गयीं। यह जानकर देव ने कहा-“हे पार्थ! तुम ठीक तरह से मेरी बातें सुन रहे हो न?” श्रीकृष्ण के इन शब्दों को सुनकर अर्जुन ने स्वयं को कृतकृत्य माना। बालक की सन्तुष्टि देखकर माता भी सन्तुष्ट होती है और शिष्य का समाधान देखकर गुरु का भी समाधान होता है; और इस चीज का ठीक-ठीक अनुभव उस माता अथवा उस गुरु को ही हो सकता है; किसी अन्य को नहीं। यही कारण है कि अर्जुन के शरीर में सात्त्विक भावों की लहर उठने से पहले ही श्रीकृष्ण के शरीर में सात्त्विक भावों की इतनी प्रबल लहर उठी कि वह रोके नहीं रुकती थी। परन्तु फिर भी देव ने जान-बूझकर उसका निग्रह किया और फिर उन्होंने पूर्णता को प्राप्त परिमल के सदृश अथवा अमृत की शीतल तरंगों की तरह कोमल और सरस वचन कहना आरम्भ किया। भगवान् ने कहा-“हे श्रोता-शिरोमणि, तात धनंजय! सुनो। जिस समय एक बार माया इस प्रकार जलने लगती है, उस समय उसे जलाने वाला ज्ञान भी जलकर भस्म हो जाता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (30-58)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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