ज्ञानेश्वरी पृ. 214

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग


अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्मा किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम् ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥1॥

अर्जुन ने कहा-“अब मेरा पूरा ध्यान आपकी ही बातों की तरफ है। मैंने जो कुछ पूछा है, वह आप मुझे समझावें और यह भी बतलावें कि ब्रह्मकर्म और अध्यात्म क्या है। अधिभूत और अधिदैव का भी आप निरूपण करें। आप इन सब बातों को इस ढंग से बतलावें कि मेरी समझ में अच्छी तरह से आ जाय।[1]


अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि: ॥2॥

हे देव! आप जिसे अधियज्ञ नाम से पुकारते हैं, वह इस देह में कौन है तथा कैसा है? मैं उसके विषय में जानना चाहता हूँ, पर वह किसी भी तरह मेरे अनुमान की पकड़ में नहीं आता। साथ-ही-साथ हे शांर्गपाणि, मुझे यह भी बतलाइये कि स्वाधीन अन्तःकरण वालों को देहत्याग के समय आपका जो ज्ञान होता है वह किस प्रकार होता है।” देखो कोई सौभाग्यशाली व्यक्ति चिन्तामणि रत्नों से निर्मित भवन में शयन करता है और उस शयनावस्था में ही यदि वह कुछ बड़बड़ाता है, तो उसकी वह बड़बड़ाहट भी कभी बेकार नहीं जाती। इसी प्रकार अर्जुन के मुख से ये सब बातें अभी ठीक से निकलने भी नहीं पायी थीं कि देव ने कहा कि हे अर्जुन! तुमने जो कुछ पूछा है, उसका वर्णन अच्छी तरह सुनो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (1-3)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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