श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
अब अर्जुन विस्मित होकर मन-ही-मन कहने लगा कि क्या ये सब पानी में ही दृष्टिगोचर होने वाले तारागण हैं? केवल अक्षरों के बाहरी तड़क-भड़क के चक्कर में ही मैं कैसा फँस गया! और मैं कैसा छला गया! अरे, ये कैसे और कहाँ के अक्षर हैं? ये तो केवल आकाश के परत हैं। यहाँ मेरी मति चाहे कितनी ही ऊँची उड़ान क्यों न भरे, पर इसे क्या कभी उसकी थाह लग सकती है? किन्तु जब तक उसकी थाह न लगे, तब तक इन वचनों का अर्थ कभी समझ में ही नहीं आ सकता। अपने चित्त में इस प्रकार की बातों का विचार करके अर्जुन ने फिर यादवेन्द्र की ओर दृष्टि की और तब उस वीर शिरोमणि ने विनम्रतापूर्वक कहा-“हे देव! ये जो सातों पद (ब्रह्म अध्यात्म कर्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ, प्रयाण काल में योगियों को होने वाला तुम्हारा स्मरण) यहाँ इकट्ठे हुए हैं, इनको कभी किसी ने चखा ही नहीं और ये अपूर्व हैं। यदि यह चीज न होती तो भला यह कैसे सम्भव था कि ठीक तरह एकाग्रचित्त होकर ध्यान देने पर भी श्रवण के द्वारा बड़े-बड़े सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण हुए बिना रह जाता, परन्तु यह विषय वैसा नहीं है। अक्षरों की यह सजावट देखकर स्वयं विस्मय को भी विस्मय होता है। श्रवणेन्द्रियों के वातायन-मार्ग से ज्यों ही आपकी वाग्-रश्मियाँ हृदय में प्रविष्ट कीं त्यों ही मुझे अत्यन्त विस्मय हुआ और मेरी विचार-शक्ति ही बन्द हो गयी। इसलिये मेरे चित्त में इस बात का बहुत अनुराग है कि मैं इनके अर्थ का ज्ञान प्राप्त करूँ। पर समय की इतनी अधिकता नहीं है कि मैं अपने उस अनुराग का विवेचन कर सकूँ, इसलिये हे देव, आप स्वयं ही अतिशीघ्र समस्त बातों का वर्णन करें।” इस प्रकार पिछली बातों का विचार करते हुए, आगे के हेतु पर दृष्टि रखते हुए और बीच में अपना उत्कट अनुराग दृढ़तापूर्वक स्थापित करके अर्जुन का प्रश्न करने का यह ढंग कितना अनोखा है। इस प्रकार प्रश्न करते समय अर्जुन ने मर्यादा का अतिक्रमण भी नहीं किया; अन्यथा उसने अपनी भुजा फैलाकर भगवान् का प्रगाढ़ालिंगन भी कर लिया होता। यह केवल अर्जुन को ही पता था कि यदि श्रीगुरु से प्रश्न करना हो तो इसी मार्ग का आश्रय लेना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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