ज्ञानेश्वरी पृ. 210

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥29॥

हे पार्थ! इसके बाद इस जन्म-मरण की कहानी स्वतः बन्द हो जाती है। जिनकी आस्था में ऊपर बतलायी गयी चेष्टाओं का फल लगता है, उन्हें वह चेष्टा एक-न-एक दिन अवश्य ही सिद्धि प्रदान करती है और तब उनके हाथ वह परब्रह्मरूपी परिपक्व समग्र फल लगता है, जिसमें पूर्णता का रस लबालब भरा हुआ होता है। उस समय समस्त जगत् कृतकृत्यता की धन्यता से भर जाता है, आत्मज्ञानरूपी गौरव को पूर्णता मिल जाती है, कर्मों की आवश्यकता समाप्त हो जाती है और मन सुखी तथा शान्त हो जाता है। हे धनंजय! जो मुझे ही अपने व्यापार की पूँजी बनाता है, उसे इसी प्रकार के आत्मबोध का लाभ होता है। उसे साम्यरूपी व्याज मिलता है, उसका ब्रह्मैक्यरूपी किसानी का भी विस्तार होता जाता है और तब फिर भेदभाव वाली दीनता से कभी उसकी भेंट नहीं होती।[1]


साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु: ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस: ॥30॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञान योगो नाम सप्तमोऽध्यायः।।7।।

जिन लोगों को यह अनुभव हो जाता है कि यह मायायुक्त सृष्टि मेरा ही रूप है और जो इसी अनुभव के हाथों से मेरे पंचभूतात्मक रूप का आश्रय लेकर सारे देवताओं के अधिष्ठान मेरे आधिदैविक स्वरूप तक आ पहुँचते हैं और फिर जिन लोगों को पूर्ण ज्ञान के सामर्थ्य से मेरा अधियज्ञ (परब्रह्मस्वरूप) दृष्टिगोचर होने लगता है, वे इस शरीर के नष्ट हो जाने पर कभी दुःखी नहीं होते और नहीं तो आयुष्य की रस्सी के टूटते ही जीवमात्र को इतनी ज्यादा व्याकुलता होती है कि उसे देखकर इर्द-गिर्द के लोगों को ऐसा प्रतीत होने लगता है कि आज मानो कल्प का अन्त ही हो गया। इस प्रकार के लोगों की चाहे जो भी दशा होती हो, पर जो मेरा स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं, वे उस देहावसान काल की व्याकुलता में भी मुझे नहीं भूलते। सामान्यतः यही जानना चाहिये कि जो इतनी पूर्णता तक पहुँच जाते हैं, वही सच्चे युक्तचित्त हैं और वही सच्चे योगी हैं।”

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (175-179)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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