श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । इसलिये विजय आदि जो लाभ हैं उनसे मुझे कुछ भी लेना-देना नहीं है। इस तरह के राज्य को लेकर मुझे क्या करना है! इन सब लोगों को मार करके जो सुख भोगने को मिलें उन सब सुखों में आग लगे।” फिर पार्थ ने कहा-“यदि वे सुख भोगने को न मिलें तो उस दशा में चाहे जो कुछ भी हो, वह सब सहन किया जा सकता है, किन्तु इसके लिये तो यदि प्राण भी गँवाने पड़ें तो वह भी मुझे स्वीकार है, पर यह बात मुझे स्वप्न में भी स्वीकार नहीं हैं कि पहले तो मैं इन्हें मारूँ और फिर स्वयं राज्यसुख भोगूँ। यदि मैं इन गुरुजनों का अहित सोचूँ तो फिर मेरा जन्म लेना ही व्यर्थ है। उसके बाद भी यदि मेरा जीवन बचा रहे तो फिर किसके लिये? हर एक की इच्छा होती है कि मेरे आगे की पीढ़ी और आगे बढ़े, क्या उसका परिणाम यही है कि हम अपने वंश का समूल नाश कर डालें? अब यह बात भला मन में कैसे आ सकती है कि हम स्वजनों के प्रति वज्र के समान कठोर हो जायँ? हमें तो यथासम्भव इन लोगों की भलाई ही करते रहनी चाहिये। वैसे तो होना यह चाहिये कि हमारे द्वारा जुटायी गयी सुख-सामग्री का यही लोग उपभोग करें। इतना ही नहीं, इन लोगों के लिये तो हमें अपने जीवन को भी न्योछावर कर देना चाहिये। सबसे उत्तम बात यह होती कि हम दिग्-दिगन्त के समस्त भूपालों को जीतकर अपने वंशजों को ही सन्तुष्ट करें। इस समय हमारे वही सब भाई-बन्धु यहाँ आये हुए हैं; किन्तु विधि का विधान कुछ ऐसा प्रतिकूल आ पड़ा है कि ये लोग अपने धन-सम्पत्ति और पत्नी, पुत्र आदि सबको त्यागकर और अपना जीवन शस्त्रों की नोक पर लटकाकर यहाँ एक-दूसरे को मरने-मारने के लिये उद्यत हुए हैं। फिर ऐसे लोगों की हत्या भला मैं कैसे करूँ? इनमें से किन पर शस्त्र उठाऊँ? (ये कौरव यानी हम लोग ही हैं, इन लोगों को मारना यानी अपने को मारना है, इस दृष्टि से अर्जुन बोल रहे हैं।) अपने ही हृदय का घात मैं किस प्रकार करूँ?[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (210-221)
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