श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
हे पाण्डुपुत्र! इस प्रकार मैं ही जीवमात्र में पूर्णरूप से भरा रहता हूँ। किन्तु इतने के बावजूद वे जीव जिस संसार के फेर में पड़े हुए हैं, उस संसार की बातें कुछ विलक्षण ही हैं। अब मैं उस संसार की थोड़ी-सी बातें संक्षेपतः बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। जब अहंकार और शरीर की प्रीति होती है[1],
तब उनके संयोग से इच्छा नामक कन्या (कुमारी) का जन्म होता है, जिस समय यह कन्या तारुण्यावस्था को प्राप्त होती है, उस समय वह द्वेष के संग अपना वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करती है, फिर इच्छा और द्वेष के इस युगल से द्वन्द्व-मोह का जन्म होता है। इस बालक का लालन-पालन इसका नाना अहंकार ही करता है। यह बालक सदा धैर्य का विरोधी रहता है और यह इतना ढीठ होता है कि नियम अर्थात् इन्द्रियनिग्रह के अधीन नहीं रहता। फिर वह आशारूपी दूध (रस) का पान कर हट्टा-कट्टा हो जाता है। हे धनुर्धर! वह असंतोषरूपी मदिरा से मतवाला होकर विषयरूपी कोठरी में विकृतिरूपी स्त्री के संग पड़ा रहता है। फिर वह शुद्ध भावरूपी रास्ते में संकल्प-विकल्परूपी काँटों का जाल बिछा देता है तथा कुत्सित कर्मों के टेढ़े-मेढे़ मार्ग बना देता है। द्वन्द्व-मोह के इस प्रकार के कृत्यों से प्राणिमात्र भ्रम में पड़ जाते हैं और तब वे संसाररूपी जंगल में आकर भटकने लगते हैं तथा महादुःख के डण्डे से पीटे जाते हैं।[2]
इस प्रकार के मिथ्या संकल्प-विकल्परूपी तीक्ष्ण काँटों को देखते हुए भी जो व्यक्ति मतिभ्रम अर्थात् द्वन्द्व-मोह को अपने निकट आने ही नहीं देते, जो सरल एकनिष्ठा के डग भरते हुए तथा संकल्प-विकल्परूपी काँटों को रौंदते हुए महापातकों के जंगल से पार हो जाते हैं और फिर जो पुण्य की शक्ति से दौड़ मारते हुए मेरे सन्निकट आ पहुँचते हैं, उनके गुणों का वर्णन कहाँ तक किया जाय! वे कामादि बटमारों से बच निकलते हैं।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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