ज्ञानेश्वरी पृ. 2

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

अब मैं उस अखिल ब्रह्माण्ड-मोहिनी सरस्वती माता को प्रणाम करता हूँ जो अपूर्व वाणी की अधिष्ठात्री, चातुर्य, वागर्थ तथा कलाओं में प्रवीण हैं। जिन श्रीगुरु ने इस संसार-सिन्धु से पार किया है, वे गुरु समग्ररूप से मेरे हृदय में विराजमान हैं। यही कारण है कि विवेक से मेरा विशेष लगाव है। जैसे नेत्रों में दिव्यांजन लगाने से दृष्टि को अप्रतिम शक्ति प्राप्त होती है और तब मनुष्य जहाँ दृष्टि डालता है, वहीं उसे भूमिगत धनराशियाँ दृष्टिगोचर होने लगती हैं अथवा जैसे चिन्तामणि के हाथ लगाने से समस्त मनोरथ विजयी होते हैं, अर्थात् समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, वैसे ही श्रीनिवृत्ति नाथ जी की कृपा से मेरे सब मनोरथ पूर्ण हो गये हैं; ऐसा ज्ञानेश्वर जी कहते हैं। इसीलिये विवेकी जनों को गुरु की भक्ति करके कृतार्थ हो जाना चाहिये; क्योंकि जैसे पेड़ के मूल में पानी डालने से अनायास ही शाखाएँ, पत्ते स्वतः सम्पुष्ट होते हैं अथवा जैसे सिन्धु में अवगाहन मात्र से (स्नान से) त्रिलोकी के सम्पूर्ण तीर्थावगाहन का पुण्य प्राप्त होता है अथवा जैसे सुधापान करने से सारे रसों के सेवन का आनन्द मिल जाता है, वैसे ही मैंने श्रीसद्गुरु को बारम्बार पूज्य-बुद्धि से नमन किया; वे सद्गुरु इच्छित मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं।

अब आप लोग उस गहन विचारों से युक्त कथा को सुनें, जो समस्त चमत्कारों की (कथाओं की) मातृभूमि अथवा विवेकरूपी वृक्षों का एक अद्भुत बगीचा है। इस कथा में परमानन्द का (सर्वसुख का) मूल उद्गम, महासिद्धान्त का बड़ा संग्रह है अथवा नवरसों का अमृतागार है अथवा यह कथा प्रकट परमधाम, परम गति का आश्रय स्थान, सम्पूर्ण विद्याओं का आदि पीठ और अशेष शास्त्रों में श्रेष्ठ है अथवा यह कथा सभी धर्मों का पीहर, सज्जनों का जीवन और माँ शारदा के लावण्य-रत्नों का भण्डार है अथवा महर्षि व्यास की बुद्धि में प्रवेश करके स्वयं सरस्वती देवी उस कथारूप में त्रिलोकी में प्रकट हुई हैं। इसीलिये यह कथा सब काव्यों एवं महाकाव्यों की महारानी और समस्त ग्रन्थों के आदर का केन्द्र है और इसी से श्रृंगारादि नवरसों को सरसता प्राप्त हुई है। इतना ही नहीं, इस कथा के विषय में कुछ और भी सुनिये। इसी कथा के शब्दरूपी वैभव से शास्त्र शुद्ध हुआ है और आत्मज्ञान की कोमलता इसी से द्विगुणित हुई है। चातुर्य ने इसी से चतुराई सीखी है, सिद्धान्त इसी से रुचिर बने हैं, भक्ति-रस इसी से स्वादिष्ट हुआ है और सुख-सौभाग्य की वृद्धि भी इसी से हुई है। माधुर्य को मधुरता, श्रृंगार को श्रृंगारिकता और अच्छी बातों को प्रसिद्धि इसी कथा से प्राप्त हुई है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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