ज्ञानेश्वरी पृ. 198

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग

इसमें एक बात और भी है कि इस माया-नदी को तैरकर पार करने के लिये जो-जो उपाय किये जाते हैं, उनसे उलटे और भी अहित ही होता है। अब यह ध्यानपूर्वक सुनो कि ये अहित कैसे होते हैं। कुछ लोग अपनी बुद्धि के बल पर इस माया-नदी में प्रवेश करते हैं, परन्तु वे जल्दी ही अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं। कुछ लोग अज्ञान के दह में अभिमान के मुख में जा गिरते हैं। कुछ लोग इसे पार करने के लिये अपने कटिप्रदेश में वेदत्रयी का तो तुम्बा बाँधते हैं उसके साथ-ही-साथ अहंकाररूपी एक विशाल शिला भी अपनी कटि में कसकर बाँध लेते हैं और उस दशा में उन्मादरूपी मछली उन्हें पूरा-का-पूरा ही घोंट जाती है।

कुछ लोग अपनी युवावस्था के बल पर ही इसे तैरकर पार करना चाहते हैं, पर वे विषयों के चक्कर में पड़ जाते हैं तथा उन्हें विषयरूपी मगरमच्छ खा जाते हैं और फिर आगे चलकर वे लोग इस नदी के वार्धक्यरूपी लहरों में इधर-उधर उलझ जाते हैं। फिर शोकरूपी किनारे से टकराकर और क्रोधरूपी भँवर में गोते खाकर वे जब-जब सिर उठाते हैं; तब-तब आपदारूपी गिद्ध उन्हें नोचने लगते हैं। फिर वे दुःखरूपी पंक से सराबोर हो जाते हैं और अन्ततः मरण की रेती में पहुँचकर उसी में फँस जाते हैं, अर्थात् मर जाते हैं। इस प्रकार जो लोग विषयों के चक्कर में पड़े रहते हैं, उनका जीवन ही निरर्थक हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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