श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
इसमें एक बात और भी है कि इस माया-नदी को तैरकर पार करने के लिये जो-जो उपाय किये जाते हैं, उनसे उलटे और भी अहित ही होता है। अब यह ध्यानपूर्वक सुनो कि ये अहित कैसे होते हैं। कुछ लोग अपनी बुद्धि के बल पर इस माया-नदी में प्रवेश करते हैं, परन्तु वे जल्दी ही अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं। कुछ लोग अज्ञान के दह में अभिमान के मुख में जा गिरते हैं। कुछ लोग इसे पार करने के लिये अपने कटिप्रदेश में वेदत्रयी का तो तुम्बा बाँधते हैं उसके साथ-ही-साथ अहंकाररूपी एक विशाल शिला भी अपनी कटि में कसकर बाँध लेते हैं और उस दशा में उन्मादरूपी मछली उन्हें पूरा-का-पूरा ही घोंट जाती है। कुछ लोग अपनी युवावस्था के बल पर ही इसे तैरकर पार करना चाहते हैं, पर वे विषयों के चक्कर में पड़ जाते हैं तथा उन्हें विषयरूपी मगरमच्छ खा जाते हैं और फिर आगे चलकर वे लोग इस नदी के वार्धक्यरूपी लहरों में इधर-उधर उलझ जाते हैं। फिर शोकरूपी किनारे से टकराकर और क्रोधरूपी भँवर में गोते खाकर वे जब-जब सिर उठाते हैं; तब-तब आपदारूपी गिद्ध उन्हें नोचने लगते हैं। फिर वे दुःखरूपी पंक से सराबोर हो जाते हैं और अन्ततः मरण की रेती में पहुँचकर उसी में फँस जाते हैं, अर्थात् मर जाते हैं। इस प्रकार जो लोग विषयों के चक्कर में पड़े रहते हैं, उनका जीवन ही निरर्थक हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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