श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
हे धनंजय! अब ज्वलन्त प्रश्न यह खड़ा होता है कि महत्तत्त्वादि जो मेरी माया है, उससे पार होकर मेरा मूल स्वरूप कैसे प्राप्त करना चाहिये परब्रह्मरूपी गिरि-शिखर पर सर्वप्रथम संकल्परूपी जल के साथ-साथ जो मायारूपी नदी का छोटा-सा महाभूतरूपी बुलबुला निकलता है, इसके बाद जो सृष्टि-निर्माण के प्रभाव से और कालक्रम से निरन्तर बढ़ते हुए वेग से कर्म-मार्ग और मोक्ष-मार्ग इन दो ऊँचे तटों में से होता हुआ जल-स्त्रोत मनमाने ढंग से इधर-उधर चलता है, फिर सत्त्वादि गुणों की वृष्टि के कारण भली-भाँति भरकर अपनी मोहरूपी बाढ़ के द्वारा यम (मनोनिग्रह) तथा नियम (इन्द्रिय-निग्रह) रूपी नगरों को बहा ले जाता है, जिसमें जगह-जगह द्वेषरूपी भँवर पड़ते रहते हैं, मत्सर के चक्कर पड़ते रहते हैं और तरुण स्त्री आदि रूपी भयंकर मगरमच्छ दृष्टिगोचर होते रहते हैं, जिसमें प्रपंचरूपी अनेक मोड़ तथा कर्म और अकर्म की तरंगों पर सुख-दुःख रूपी कतवार बहता रहता है, जिस नदी में रतिरूपी टापू पर कामवासनाओं की लहरें टकराती रहती हैं और जीवरूपी फेनसमूह चतुर्दिक् दृष्टिगोचर होते हैं, जिस नदी के अहंकाररूपी प्रवाह में विद्या, धन और बल-इन तीन मदों की लहरें उठती रहती हैं तथा विषय-वासना के हिलोरे आते रहते हैं, जिसमें उदय तथा अस्त की बाढ़ आने के कारण जीवन-मरण के दह पड़ते हैं और उनमें पंचभूतात्मक सृष्टि के बुलबुले निरन्तर उठते रहते हैं, जिस नदी में मोह और भ्रमरूपी मछलियाँ धैर्यरूपी मांस छीन-झपटकर खाती रहती हैं और टेढ़े-मेढ़े अज्ञान के चक्कर खाती हुई इधर-उधर भ्रमण करती रहती हैं तथा जिस मायारूपी नदी में भ्रम के गँदलेपन के कारण आशा की दलदल बनती है और रजोगुणरूपी गर्जना स्वर्ग तक सुनायी पड़ती है, जिस मायारूपी नदी में तमोगुण का वेग अत्यधिक प्रबल रहता है और सत्त्वरूपी दहों को तैरकर पार करना अत्यन्त कठिन होता है, वह मायारूपी नदी बहुत ही कठिन है। इसमें जीवन और मरण की जो बाढ़ आती है, उसके कारण सत्यलोक के किले ढह जाते हैं और ब्रह्माण्डरूपी विशाल शिलाएँ भी डगमगा कर गिरने लगती हैं। इस मायारूपी नदी के प्रचण्ड जल-प्रवाह के कारण अभी तक उसकी लहरें थमने का नाम ही नहीं लेतीं तो फिर भला इस मायारूपी बाढ़ को तैरकर कौन पार कर सकता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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