ज्ञानेश्वरी पृ. 195

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥12॥

यह बात तुम अच्छी तरह से जान लो कि जितने सात्त्विक, राजस और तामस-भाव होते हैं, वे सारे-के-सारे भाव मेरे ही स्वरूप से उत्पन्न होते हैं। यद्यपि ये विकार मुझसे ही उत्पन्न होते हैं, पर फिर भी इन विकारों में मैं ठीक वैसे ही नहीं रहता, जैसे स्वप्नावस्था के दह में जाग्रत् अवस्था नहीं होती। बीजकणिका वस्तुतः रस-द्रव्य से ही बनी हुई और उसी से ओत-प्रोत होती है, परन्तु अंकुर और शाखाओं में जो कठोर काष्ठ होता है, वह उसी बीजकणिका से ही बना हुआ होता है। परन्तु फिर भी क्या कभी उस काष्ठ में कहीं बीज का गुण दिखलायी पड़ता है? इसी प्रकार बाहर से भले ही यह जान पड़े कि मुझमें ही विकार उत्पन्न हुए हैं, तो भी मैं उन विकारों में नहीं रहता। गगन में मेघ तो आते हैं, पर मेघों में गगन नहीं रहता। मेघों में पानी तो होता है, पर उस पानी में मेघ नहीं रहते। फिर मेघों में स्थित पानी में जब हलचल होती है, तब उसमें विद्युत् की चमक दृष्टिगोचर होती है। परन्तु क्या यह कहा जा सकता है कि उस चमकने वाली विद्युत् में पानी रहता है? अग्नि से धूम्र निकलता है, पर क्या उस धूम्र में भी कभी अग्नि रहती है? इसी प्रकार मुझ पर विकार होते हैं, किन्तु वह विकार मैं नहीं हूँ।[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (53-59)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः