श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
यह बात तुम अच्छी तरह से जान लो कि जितने सात्त्विक, राजस और तामस-भाव होते हैं, वे सारे-के-सारे भाव मेरे ही स्वरूप से उत्पन्न होते हैं। यद्यपि ये विकार मुझसे ही उत्पन्न होते हैं, पर फिर भी इन विकारों में मैं ठीक वैसे ही नहीं रहता, जैसे स्वप्नावस्था के दह में जाग्रत् अवस्था नहीं होती। बीजकणिका वस्तुतः रस-द्रव्य से ही बनी हुई और उसी से ओत-प्रोत होती है, परन्तु अंकुर और शाखाओं में जो कठोर काष्ठ होता है, वह उसी बीजकणिका से ही बना हुआ होता है। परन्तु फिर भी क्या कभी उस काष्ठ में कहीं बीज का गुण दिखलायी पड़ता है? इसी प्रकार बाहर से भले ही यह जान पड़े कि मुझमें ही विकार उत्पन्न हुए हैं, तो भी मैं उन विकारों में नहीं रहता। गगन में मेघ तो आते हैं, पर मेघों में गगन नहीं रहता। मेघों में पानी तो होता है, पर उस पानी में मेघ नहीं रहते। फिर मेघों में स्थित पानी में जब हलचल होती है, तब उसमें विद्युत् की चमक दृष्टिगोचर होती है। परन्तु क्या यह कहा जा सकता है कि उस चमकने वाली विद्युत् में पानी रहता है? अग्नि से धूम्र निकलता है, पर क्या उस धूम्र में भी कभी अग्नि रहती है? इसी प्रकार मुझ पर विकार होते हैं, किन्तु वह विकार मैं नहीं हूँ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (53-59)
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