श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
यह जो मृगजल हम लोगों को दृष्टिगोचर होता है, यदि इसके मूल कारण को खोजा जाय तो ज्ञात होता है कि वह कारण केवल रश्मि ही नहीं है, अपितु भानु ही है। वैसे ही, हे किरीटी! इस प्रकृति से उत्पन्न होने वाली सृष्टि का जब लय होगा और यह फिर अपनी मूल स्थिति में जाकर ज्यों-की-त्यों समा जायगी, तब यह केवल मेरे ही रूप की हो जायगी; यानी यह मुझमें ही विलीन हो जायगी और तब केवल मेरा ही रूप रह जायगा। इस प्रकार जो यह विश्व उत्पन्न होकर फिर विलीन हो जाता है, वह सदा मुझमें ही रहता है। जिस प्रकार सूत्र में मणियाँ गुँथी रहती हैं, उसी प्रकार यह विश्व भी मुझमें ही रहता है। जैसे स्वर्णनिर्मित मणियाँ स्वर्ण के ही सूत्र में गुँथी रहती हैं, वैसे ही इस विश्व को बाह्याभ्यन्तर सर्वतः मैं ही धारण किये रहता हूँ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (29-32)
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