श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
हे पार्थ! इन्हीं आठों भेदों की जो साम्यावस्था है, उसी को तुम मेरी परम प्रकृति जानो। इसी को जीव कहते हैं; क्योंकि यही अचेतन शरीर को चेतन करती है, यही शरीर में गति इत्यादि उत्पन्न करती है और यही मन को शोक, मोह आदि विकारों का भास कराती है। किंबहुना, बुद्धि में जो जानने की शक्ति है, वह भी इस माया के सान्निध्य का ही परिणाम है और इसी में उत्पन्न होने वाले अहंकार ने इस जगत् का अस्तित्व बनाये रखा है।[1]
यह सूक्ष्म प्रकृति जिस समय अपनी कामना से स्थूल महाभूतों के अंगों से संयुक्त होती है, उस समय भूत-सृष्टि की मानो टकसाल ही खुल जाती है। इस टकसाल में से चार तरह के जीवरूपी सिक्के अपने-आप निकलने लगते हैं। जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-ये ही चार तरह के सिक्के हैं। मूल्य की दृष्टि से तो ये सिक्के समान ही हैं, पर जाति की दृष्टि से ये एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। सब मिलाकर ये जातियाँ चौरासी लाख हैं। इनके अलावा और भी अनगिनत जातियाँ हैं। इसी प्रकार के जीवरूपी अनगिनत सिक्कों से उस निर्गुण निराकार और अव्यक्त बीज का भण्डार भर जाता है। इस प्रकार पंचमहाभूतों के बराबर की तौल के इतने पर्याप्त सिक्के हो जाते हैं कि उनकी गणना केवल प्रकृति ही कर सकती है, जिन सिक्कों का निर्माण वह पहले कर लेती है, उन्हीं को वह बाद में नष्ट भी कर डालती है। केवल उनकी मध्य या अस्तित्व वाली अवस्था में ही वह उन्हें कर्म और अकर्म के व्यवहार में प्रवृत करती है। परन्तु अब इस रूपक का यहीं समापन किया जाता है। अब मैं स्पष्ट रूप से समझने योग्य यह बात बतलाता हूँ कि यह प्रकृति (माया) ही जगत् की उन समस्त वस्तुओं का प्रसार करती है जिनकी प्रतीति नाम और रूपों के द्वारा होती है और इसमें कुछ सन्देह ही नहीं है कि वह प्रकृति मुझमें ही समरस होकर रहती है। इसीलिये इस सम्पूर्ण जगत् का आदि, मध्य और अन्त मैं ही हूँ।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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