ज्ञानेश्वरी पृ. 190

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ॥3॥

सहस्रों मनुष्यों में कभी कोई विरला मनुष्य ही ऐसा होता है, जिसकी इस विषय में प्रीति होती है और ऐसी प्रीति रखने वाले बहुत-से मनुष्यों में सच्चा ज्ञानी कोई विरला ही दिखायी पड़ता है। हे अर्जुन! जैसे त्रिभुवन में से एक परम वीर का चयन कर सेना के लाखों मनुष्यों की भर्ती की जाती है अथवा सेना भर्ती कर चुकने पर भी जैसे रणभूमि में शस्त्रों के द्वारा अनेक लोगों के मारे जाने पर विजयश्री के सिंहासन पर कोई एकाध मनुष्य ही बैठता है, वैसे ही इस ब्रह्मज्ञानरूपी जलाशय में भी करोड़ों मनुष्य कूदते हैं, किन्तु इस जलाशय के उस पार कोई एकाध मनुष्य ही पहुँचता है। इसीलिये मैं तुमसे बार-बार कहता हूँ कि यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह कहने में भी अत्यन्त दुरूह है। परन्तु फिर भी मैं तुम्हें यह बात बतलाने की चेष्टा करूँगा। तुम मनोयोगपूर्वक सुनो।[1]


भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥4॥

हे धनंजय! जिस प्रकार व्यक्ति के शरीर की छाया पड़ती है, उसी प्रकार यह महत्तत्त्व इत्यादि माया भी मेरी ही प्रतिच्छाया है। इसी माया को प्रकृति भी कहते हैं। यह आठ प्रकार की है और यही त्रिभुवन की जन्मदात्री भी है। यदि तुम्हारे चित्त में यह संशय हो कि इसके आठ प्रकार कौन-से हैं तो मैं बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। अप्, तेज, आकाश, पृथ्वी, वायु, मन, बुद्धि और अहंकार यही प्रकृति के आठ भेद हैं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (10-14)
  2. (15-18)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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