श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
सहस्रों मनुष्यों में कभी कोई विरला मनुष्य ही ऐसा होता है, जिसकी इस विषय में प्रीति होती है और ऐसी प्रीति रखने वाले बहुत-से मनुष्यों में सच्चा ज्ञानी कोई विरला ही दिखायी पड़ता है। हे अर्जुन! जैसे त्रिभुवन में से एक परम वीर का चयन कर सेना के लाखों मनुष्यों की भर्ती की जाती है अथवा सेना भर्ती कर चुकने पर भी जैसे रणभूमि में शस्त्रों के द्वारा अनेक लोगों के मारे जाने पर विजयश्री के सिंहासन पर कोई एकाध मनुष्य ही बैठता है, वैसे ही इस ब्रह्मज्ञानरूपी जलाशय में भी करोड़ों मनुष्य कूदते हैं, किन्तु इस जलाशय के उस पार कोई एकाध मनुष्य ही पहुँचता है। इसीलिये मैं तुमसे बार-बार कहता हूँ कि यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह कहने में भी अत्यन्त दुरूह है। परन्तु फिर भी मैं तुम्हें यह बात बतलाने की चेष्टा करूँगा। तुम मनोयोगपूर्वक सुनो।[1]
हे धनंजय! जिस प्रकार व्यक्ति के शरीर की छाया पड़ती है, उसी प्रकार यह महत्तत्त्व इत्यादि माया भी मेरी ही प्रतिच्छाया है। इसी माया को प्रकृति भी कहते हैं। यह आठ प्रकार की है और यही त्रिभुवन की जन्मदात्री भी है। यदि तुम्हारे चित्त में यह संशय हो कि इसके आठ प्रकार कौन-से हैं तो मैं बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। अप्, तेज, आकाश, पृथ्वी, वायु, मन, बुद्धि और अहंकार यही प्रकृति के आठ भेद हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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