श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
जैसे चन्द्रकला के स्पर्श से सोमकान्त मणि पिघलने लगती है, वैसे ही दया के स्पर्श से पार्थ भी द्रवित होकर खेदयुक्त वाणी से भगवान् श्रीकृष्ण से कहने लगा[1]- अर्जुन उवाच “हे देव! अब आप ध्यानपूर्वक सुनिये, यहाँ आये हुए सब लोगों को तो मैंने देख लिया। ये सब लोग तो मेरे ही कुल-गोत्र के दिखायी पड़ते हैं। ये सब युद्ध के लिए अत्यन्त उत्साहित हो गये हैं; पर मेरा भी इन्हीं की भाँति युद्ध के लिये उद्यत होना कहाँ तक उचित होगा? इन आप्त सम्बंधियों से युद्ध करने के विचार से मुझे कुछ अलग सा लग रहा है। इनके साथ मेरी अपनी ही सुध-बुध नष्ट हो गयी है। मन और बुद्धि दोनों अस्थिर होने लगे हैं। देखिये, मेरा शरीर काँप रहा है, मुख सूखने लगा है और सब गात्रों में (शरीर में) शिथिलता आ रही है। सारे शरीर में रोमांच हो आया है, अन्तःकरण में (मन में) पीड़ा हो रही है। गाण्डीव को धारण करने वाला मेरा हाथ शिथिल पड़ रहा है। वह गाण्डीव धनुष पकड़ने से पहले ही छूट गया; हाथ से कब गिर गया इसका मुझे पता ही नहीं। इस मोह ने मेरा हृदय इस तरह घेरा हुआ है। अर्जुन का अन्तःकरण वज्र से भी कठोर दूसरों से न डरने वाला, अतिशय गंभीर (साहसी) है; परन्तु इस करुणा का (कायरता का) वलय उससे ही बढ़कर। बड़़े आश्चर्य की बात है, जिसने युद्ध में शंकर जी को हार स्वीकार करने के लिये विवश किया और निवातकवच नाम के राक्षसों का समूल नाश किया, उस अर्जुन को एक क्षण में ही मोह ने घेर लिया। मधुप कठोर-से-कठोर काष्ठ को भी बड़ी ही सहजता से छेद डालता है, किन्तु एक कमल की कली में वह बन्द हो जाता है, फिर चाहे वहाँ उसके प्राण ही क्यों न चले जायँ, परन्तु उस कली को छेदने का विचार उसके मन में स्पर्श तक नहीं करता, उसी प्रकार यह स्नेह उस कली-जैसा कोमल तो है लेकिन है महाकठिन! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (185-192)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |