ज्ञानेश्वरी पृ. 187

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-6
आत्मसंयम योग


तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक: ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥46॥

जिस लाभ की प्रत्याशा से धैर्य की बाँह पकड़कर कर्मनिष्ठ लोग षट्कर्म के प्रवाह में कूद पड़ते हैं अथवा जिस एक चीज के लिये ज्ञानिजन अभेद्य कवच धारण करके युद्धभूमि में संसार से लड़ जाते हैं अथवा तपस्वी लोग अपने चित्त में जिसकी इच्छा रखकर तपरूपी किले के जीर्ण-शीर्ण, फिसलन वाले कगार पर चढ़ने की चेष्टा करते हैं, जो भक्तों के लिये भक्ति और यज्ञ करने-वालों के लिये यज्ञ देवता है, अभिप्राय यह कि जो सर्वदा सबको पूज्य है, वही परब्रह्म वह स्वयं हो जाता है और जिस विचार से यह सिद्ध तत्त्व ही सब साधकों का साध्य होता है, उसी विचार से वह कर्मनिष्ठों के लिये वन्दनीय होता है, ज्ञानवानों के लिये ज्ञान का विषय होता है और तपस्वियों के लिये तपस्या का अधिदेवता होता है। जिसके मनोधर्म के साथ जीव और परमात्मा का संगम होता है, वह शरीरधारी होने पर भी यह महिमा प्राप्त कर ही लेता है। इसीलिये, हे पाण्डु कुँवर! मैं तो तुम्हें सदा के लिये यही उपदेश देता हूँ कि तुम अन्तःकरण से योगी बनो।[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (474-481)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः