श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
जिस लाभ की प्रत्याशा से धैर्य की बाँह पकड़कर कर्मनिष्ठ लोग षट्कर्म के प्रवाह में कूद पड़ते हैं अथवा जिस एक चीज के लिये ज्ञानिजन अभेद्य कवच धारण करके युद्धभूमि में संसार से लड़ जाते हैं अथवा तपस्वी लोग अपने चित्त में जिसकी इच्छा रखकर तपरूपी किले के जीर्ण-शीर्ण, फिसलन वाले कगार पर चढ़ने की चेष्टा करते हैं, जो भक्तों के लिये भक्ति और यज्ञ करने-वालों के लिये यज्ञ देवता है, अभिप्राय यह कि जो सर्वदा सबको पूज्य है, वही परब्रह्म वह स्वयं हो जाता है और जिस विचार से यह सिद्ध तत्त्व ही सब साधकों का साध्य होता है, उसी विचार से वह कर्मनिष्ठों के लिये वन्दनीय होता है, ज्ञानवानों के लिये ज्ञान का विषय होता है और तपस्वियों के लिये तपस्या का अधिदेवता होता है। जिसके मनोधर्म के साथ जीव और परमात्मा का संगम होता है, वह शरीरधारी होने पर भी यह महिमा प्राप्त कर ही लेता है। इसीलिये, हे पाण्डु कुँवर! मैं तो तुम्हें सदा के लिये यही उपदेश देता हूँ कि तुम अन्तःकरण से योगी बनो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (474-481)
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