ज्ञानेश्वरी पृ. 186

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष: ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥45॥

जैसे करोड़ों वर्षों और सहस्रों जन्मों के प्रतिबन्धों को लाँघता हुआ वह आत्मसिद्धि के निकट तक पहुँचता है, वैसे ही मोक्ष-सिद्धि के सारे साधन स्वतः ही उसका अनुसरण करते हैं और इसीलिये वह स्वभावतः विवेकरूपी साम्राज्य का स्वामी हो जाता है। तत्पश्चात् उस विवेक का भी विचार करने का वेग कुण्ठित हो जाता है और तब वह उस परब्रह्म के साथ मिलकर एकाकार हो जाता है जो विचार के क्षेत्र में किसी प्रकार आ ही नहीं सकता। उस समय मन पर छाया हुआ मेघ दूर हो जाता है, पवन की पवनता भी बन्द हो जाती है और चिदाकाश भी अपने-आप में ही विलीन हो जाता है। उसे वह अगाध और वर्णनातीत सुख प्राप्त होता है जिनमें ओंकार भी आपादमस्तक डूब जाता है; इसीलिये उसका वर्णन करने में भाषा भी पहले से ही चुप्पी साध लेती है। ऐसी जो ब्राह्मी स्थिति है और जिसे सम्पूर्ण गतियों की गति अर्थात् परम गति कहते हैं, उस अमूर्त अवस्था की वह मूर्ति ही बन जाता है। वह अपने पूर्व जन्मों का विपरीत ज्ञानरूपी जल का मल स्वच्छ कर चुका होता है, इसीलिये उस अवस्था के निकट पहुँचते ही उसके सारे विकट प्रसंग उसी जल में डूब जाते हैं। ब्रह्म-स्थिति के साथ उसका वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है और वह उसी स्थिति में उससे मिलकर एकाकार हो जाता है। जिस प्रकार इधर-उधर फैला हुआ मेघ आकाश के रूप में बदल जाता है, उसी प्रकार वह अपने वर्तमान शरीर के रहने पर भी वही ब्रह्म बन जाता है, जिसमें से सारा विश्व उत्पन्न होता है और फिर जिसमें विलीन हो जाता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (465-473)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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