श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
पूर्वजन्म में उनकी सुबुद्धि के जिस हद तक पहुँचने पर उनके आयु की समाप्ति हुई थी, उसी हद से आगे उन्हें नूतन एवं अपार सुबुद्धि प्राप्त होती है। इतना होने पर जैसे किसी भाग्यशाली तथा पैरों के ओर से जन्म लेने वाले व्यक्ति के नेत्रों में दिव्यांजन लगाया जाय और तब उसे जैसे भूमि में गड़ी हुई धन-सम्पत्ति बड़ी ही सरलता से दृष्टिगोचर होने लगे, ठीक वैसे ही ऐसे व्यक्ति की बुद्धि भी उन सब गूढ़ रहस्यों और सिद्धान्त-तत्त्वों को स्वतः और ठीक तरह से जानने लगती है’ जिनका ज्ञान साधारणतः गुरु के उपदेश से हुआ करता है। उसकी प्रकृष्ट बल वाली इन्द्रियाँ उनके मन के वशीभूत हो जाती हैं, मन वायु के साथ मिलकर एक जीव हो जाता है और वायु स्वतः चिदाकाश के साथ मिलकर समरस होने लगती है। अभ्यास स्वयं ही उसे इस दशा तक ला पहुँचाता है और इस बात का जल्दी पता ही नहीं चलने पाता कि आत्मसमाधि उसके मरनरूपी घर का समाचार पूछने के लिये स्वेच्छापूर्वक चली आ रही है अथवा और कोई बात है। ऐसे व्यक्ति को योगस्थान का अधिदेवता अथवा जगत्-उत्पत्ति की महत्ता तथा वैराग्य-सिद्धि की अनुभूति की साक्षात् अवतरित मूर्ति ही जानना चाहिये; अथवा ऐसा पुरुष संसार को मापने का माप है अथवा अष्टांगयोग के साहित्य का द्वीप है। जैसे सुगन्धि चन्दन का रूप ग्रहण करती है, वैसे ही ऐसा प्रतीत होता है कि संतोष इस व्यक्ति के रूप में प्रादुर्भूत हुआ है अथवा साधकावस्था में ही सिद्धियों के भण्डार से निकला है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (457-464)
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