श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
यदि बुद्धि को धैर्य का आश्रय मिल जाय तो वह मन को अनुभव के मार्ग से धीरे-धीरे ले जाकर ब्रह्मस्वरूप में स्थापित कर देगी। इसलिये तुम यह बात ध्यान में रखो कि आत्म प्राप्ति का यह भी एक मार्ग है। परन्तु यदि यह मार्ग तुम्हारे लिये कठिन हो तो इससे भी एक और सुगम मार्ग है, वह भी जान लो। हम अपने मन में एक ऐसा दृढ़ निश्चय कर लें कि हम जो निश्चय कर लें, उससे जरा-सा भी टस-से-मस न होंगे। यदि इतने से ही चित्त स्थिर हो जाय तो फिर जान लेना चाहिये कि सहज ही कार्य हो गया। पर यदि यह ज्ञात हो जाय कि इस प्रकार मन स्थिर नहीं रहता तो फिर उसे एकदम उन्मुक्त कर देना चाहियें। फिर इस प्रकार से उन्मुक्त मन जहाँ पर जाय, वहाँ से उसे प्रतिबन्धित करके वापस ले आना चाहिये। बस, इसी तरह से चित्त को धीरे-धीरे स्थिरता का अभ्यास हो जायगा।[1]
इसके बाद किसी-न-किसी समय एक बार उसी स्थिरता के सहयोग से चित्त सहज ही आत्मस्वरूप के निकट जा पहुँचेगा और फिर उसे देखकर उससे मिल जायगा। उस समय अद्वैत में द्वैत डूब जायगा और उस एकता के प्रभाव से त्रिलोकी प्रकाशित हो जायगी। आकाश में आकाश से भी भिन्न जान पड़ने वाला मेघ दृष्टिगोचर होता है, परन्तु उस मेघ के हट जाने पर जैसे सिर्फ सर्वव्यापी आकाश ही शेष रहता है, वैसे ही चित्त का भी लय हो जाता है और सब कुछ चैतन्य के ही रूप में दृष्टिगोचर होने लगता है। इस सहज मार्ग से इस प्रकार की फल-प्राप्ति होती है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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