श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
इसीलिये मैंने दृढ़ आसन लगाकर करने के लिये जो उत्तम योगाभ्यास बतलाया है, उससे इन इन्द्रियों का अच्छा नियन्त्रण होगा। क्योंकि यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो जब योगसाधना से इन्द्रियों का निग्रह होता है, उसी समय चित्त आत्मस्वरूप में प्रवेश करने लगता है। फिर जिस समय चित्त वहाँ से पलटता है तथा आत्मस्वरूप की तरफ उसकी पीठ होती है और वह सिर्फ अपने आत्मस्वरूप की ओर देखता है, उस समय उसे देखते ही वह पहचान जाता है कि यह तत्त्व मैं ही हूँ। पहचानते ही वह सुख के साम्राज्य का भोग करने लगता है और फिर स्वतः उस परमात्म तत्त्व के साथ मिलकर एकाकार हो जाता है। जिसके परे और कुछ है ही नहीं, जिसे इन्द्रियाँ कभी जानती तक नहीं, उसी के साथ वह तन्मय होकर निज स्थान पर आत्ममुख में रहता है।[1]
उस समय चाहे मेरु पर्वत से भी भारी दुःख का पहाड़ उस पर क्यों न टूट पड़े, परन्तु फिर भी उसका चित्त कभी अस्थिर नहीं होता अथवा चाहे उसका शरीर शस्त्रों से छलनी कर दिया जाय या आग में फेंक दिया जाय, पर फिर भी आत्मतत्त्व के महासुख में सोया हुआ उसका चित्त जागता ही नहीं। जिस समय चित्त इस प्रकार आत्मतत्त्व में विलीन हो जाता है, उस समय वह इस शरीर की ओर कभी भूलकर भी नहीं देखता। उसे दिव्य आत्मसुख मिल जाता है और यही कारण है कि वह इस शरीर से सम्बन्धित सुख-दुःख की सारी बातें ही भूल जाता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |