श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
जैसे-जैसे शरीर की बाह्य क्रियाएँ नियम के अधीन होती जाती हैं, वैसे-वैसे भीतर सुख की वृद्धि होती चलती है और इस प्रकार योग का अभ्यास न करने की दशा में भी स्वतः योगसाधन होता चलता है। जैसे भाग्य का उदय होते ही उद्योग के निमित्त से सारा ऐश्वर्य स्वतः घर में चला आता है, वैसे ही जो व्यक्ति परिमित और संयमित रूप से समस्त क्रियाओं का सम्पादन करता है, वह कुतूहल में ही योगाभ्यास के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है और उसे आत्मसिद्धि के अनुभव की प्राप्ति होती है। इसीलिये हे पाण्डव! जिस भाग्यवान् मनुष्य से यह संयम वाला कर्मयोग सध जाय, वह मोक्ष के राज्य पद पर आसीन हो जाता है।[1]
जब क्रियाओं के संयम का योग के साथ मिलाप होता है, तब यह शरीर पावन प्रयाग ही बन जाता है। इस प्रकार के शरीर में जिसका मन क्षेत्र-संन्यास की रीति से स्थिर रहता है, हे अर्जुन! उसी को तुम योगयुक्त समझो। प्रसंगानुसार तुम यह भी जान लो कि ऐसे योगयुक्त की उपमा निवात स्थान में रखे हुए दीपक को ज्योति के साथ दी जाती है। अब मैं तुम्हारे मनोभाव को जानकर तुम्हें कुछ और बातें बतलाता हूँ; उन्हें मन लगाकर सुनो। तुम अपने चित्त में कुछ पाने की अभिलाषा तो रखते हो, पर अभ्यास का वीणा उठाते ही नहीं। इसमें ऐसी कौन-सी कठिनाई है जिससे तुम भय खाते हो? हे पार्थ! तुम अपने मन में व्यर्थ भय मत पालो। ये दुष्ट इन्द्रियाँ नाहक ही तिल का ताड़ बनाकर दिखलाती हैं अर्थात् भय दिखाती हैं। देखो, यदि कोई अत्यन्त गुणकारी औषधि हो जो आयु को स्थिर कर सके और शरीर से निकलते हुए प्राणों को भी वापस ला सके, तो भी जिह्वा उस औषधि को वैरी ही मानती है अथवा नहीं? इसी प्रकार जो कर्म हमारे लिये हितकर होते हैं, वे सब इन इन्द्रियों को दुःखदायी ही लगते हैं और नहीं तो योगसाधना के सदृश सहज काम वास्तव में और कोई है ही नहीं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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