ज्ञानेश्वरी पृ. 174

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥18॥

जैसे-जैसे शरीर की बाह्य क्रियाएँ नियम के अधीन होती जाती हैं, वैसे-वैसे भीतर सुख की वृद्धि होती चलती है और इस प्रकार योग का अभ्यास न करने की दशा में भी स्वतः योगसाधन होता चलता है। जैसे भाग्य का उदय होते ही उद्योग के निमित्त से सारा ऐश्वर्य स्वतः घर में चला आता है, वैसे ही जो व्यक्ति परिमित और संयमित रूप से समस्त क्रियाओं का सम्पादन करता है, वह कुतूहल में ही योगाभ्यास के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है और उसे आत्मसिद्धि के अनुभव की प्राप्ति होती है। इसीलिये हे पाण्डव! जिस भाग्यवान् मनुष्य से यह संयम वाला कर्मयोग सध जाय, वह मोक्ष के राज्य पद पर आसीन हो जाता है।[1]


यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन: ॥19॥

जब क्रियाओं के संयम का योग के साथ मिलाप होता है, तब यह शरीर पावन प्रयाग ही बन जाता है। इस प्रकार के शरीर में जिसका मन क्षेत्र-संन्यास की रीति से स्थिर रहता है, हे अर्जुन! उसी को तुम योगयुक्त समझो। प्रसंगानुसार तुम यह भी जान लो कि ऐसे योगयुक्त की उपमा निवात स्थान में रखे हुए दीपक को ज्योति के साथ दी जाती है। अब मैं तुम्हारे मनोभाव को जानकर तुम्हें कुछ और बातें बतलाता हूँ; उन्हें मन लगाकर सुनो। तुम अपने चित्त में कुछ पाने की अभिलाषा तो रखते हो, पर अभ्यास का वीणा उठाते ही नहीं। इसमें ऐसी कौन-सी कठिनाई है जिससे तुम भय खाते हो? हे पार्थ! तुम अपने मन में व्यर्थ भय मत पालो। ये दुष्ट इन्द्रियाँ नाहक ही तिल का ताड़ बनाकर दिखलाती हैं अर्थात् भय दिखाती हैं। देखो, यदि कोई अत्यन्त गुणकारी औषधि हो जो आयु को स्थिर कर सके और शरीर से निकलते हुए प्राणों को भी वापस ला सके, तो भी जिह्वा उस औषधि को वैरी ही मानती है अथवा नहीं? इसी प्रकार जो कर्म हमारे लिये हितकर होते हैं, वे सब इन इन्द्रियों को दुःखदायी ही लगते हैं और नहीं तो योगसाधना के सदृश सहज काम वास्तव में और कोई है ही नहीं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (353-356)
  2. (357-363)

संबंधित लेख

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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