ज्ञानेश्वरी पृ. 173

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत: ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥16॥

जो रसनेन्द्रिय के अधीन हो गया हो अथवा जो जीव निद्रा के हाथों बिक गया हो, वह किसी समय इस साधना का अधिकारी नहीं कहा जा सकता अथवा जो हठ के बन्धन में क्षुधा और तृषा को बाँध करके, आहार को मारकर अपना शरीर तोड़ डालता है अथवा इसी प्रकार हठ के कारण निद्रा के रास्ते भी नहीं जाता और इस प्रकार हठ के साथ सब काम करता है, उसका स्वयं शरीर ही उसके वशीभूत नहीं होता। फिर भला ऐसे व्यक्ति से योग की साधना कैसे हो सकती है? इसीलिये जिस प्रकार विषयों का अतिशय सेवन नहीं करना चाहिये, उसी प्रकार उनके साथ वैर-भाव भी नहीं करना चाहिये और उन्हें बलपूर्वक पूरी तरह से दबाकर भी नहीं रखना चाहिये।[1]


युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा ॥17॥

आहार का सेवन करना चाहिये, पर वह उचित और परिमित हो। सारे कर्मों का आचरण भी उसी रीति से होना चाहिये। परिमित शब्द बोलने चाहिये; अच्छी तरह से चलना चाहिये और यथासमय निद्रा भी लेनी चाहिये। जागने की क्रिया भी नियमित होनी चाहिये। ऐसा करने से शरीर के कफ आदि धातु उचित मात्रा में रहते हैं और सुख होता है। इस प्रकार यदि नियमबद्ध तरीके से इन्द्रियों को उनके विषयों का भोज्य पदार्थ दिया जाय तो मन में सन्तोष की वृद्धि होती है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (345-348)
  2. (349-352)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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