श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
इसके बाद अर्जुन ने कहा, “हे देव! अब आप मेरी तरह ध्यान दें। आपने जिन-जिन साधनों का वर्णन किया है, उन सबको मैंने सुन लिया है। पर अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या वे साधन ऐसे हैं, जिनका सामान्यतः जो चाहे वही अभ्यास कर सकता है अथवा वे ऐसे साधन हैं जो बिना योग्यता के मिल ही नहीं सकते?” यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा-“यह तो निर्वाण का अत्यन्त ही विकट कार्य है। पर हे धनुर्धर! साधारण-से-साधारण कार्य भी तब तक सिद्ध नहीं हो सकता, जब तक उसके करने वाले में उसे करने की योग्यता न हो। परन्तु जिसे योग्यता कहते हैं, उसका निश्चय तो कार्य की सिद्धि पर ही निर्भर होता है। कारण कि स्वयं में योग्यता होने पर जो कार्य प्रारम्भ किया जाता है, वही सिद्ध होता है। पर ऐसी योग्यता के कारण इस काम में लेशमात्र भी कोई रुकावट नहीं होती। फिर मैं तुम्हीं से एक बात पूछता हूँ। योग्यता की क्या कहीं कोई खान होती है जिसके प्राप्त होते ही व्यक्ति जितनी योग्यता चाहे, उतनी अपने अन्दर भर ले? यदि कोई व्यक्ति थोड़ा-सा भी विरक्त होकर शरीर के विहित कर्म विधि-विधान से करने लगे तो क्या वही व्यक्ति अधिकारी नहीं सिद्ध होता? इसी प्रकार तुम भी अपने अन्दर इतनी योग्यता भर सकते हो कि वासनारहित होकर सब विहित कर्म कर सको।” इस प्रकार ये सब बातें बताकर भगवान् ने अर्जुन का संदेह दूर किया। फिर श्रीकृष्ण ने कहा-हे पार्थ! इस सम्बन्ध में यह एक नियम है कि जो व्यक्ति अपने विहित कर्म विरक्त होकर नहीं करता, उस व्यक्ति में यह योग्यता कभी आ ही नहीं सकती।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (293-344)
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