ज्ञानेश्वरी पृ. 172

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग

इसके बाद अर्जुन ने कहा, “हे देव! अब आप मेरी तरह ध्यान दें। आपने जिन-जिन साधनों का वर्णन किया है, उन सबको मैंने सुन लिया है। पर अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या वे साधन ऐसे हैं, जिनका सामान्यतः जो चाहे वही अभ्यास कर सकता है अथवा वे ऐसे साधन हैं जो बिना योग्यता के मिल ही नहीं सकते?”

यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा-“यह तो निर्वाण का अत्यन्त ही विकट कार्य है। पर हे धनुर्धर! साधारण-से-साधारण कार्य भी तब तक सिद्ध नहीं हो सकता, जब तक उसके करने वाले में उसे करने की योग्यता न हो। परन्तु जिसे योग्यता कहते हैं, उसका निश्चय तो कार्य की सिद्धि पर ही निर्भर होता है। कारण कि स्वयं में योग्यता होने पर जो कार्य प्रारम्भ किया जाता है, वही सिद्ध होता है। पर ऐसी योग्यता के कारण इस काम में लेशमात्र भी कोई रुकावट नहीं होती। फिर मैं तुम्हीं से एक बात पूछता हूँ। योग्यता की क्या कहीं कोई खान होती है जिसके प्राप्त होते ही व्यक्ति जितनी योग्यता चाहे, उतनी अपने अन्दर भर ले? यदि कोई व्यक्ति थोड़ा-सा भी विरक्त होकर शरीर के विहित कर्म विधि-विधान से करने लगे तो क्या वही व्यक्ति अधिकारी नहीं सिद्ध होता? इसी प्रकार तुम भी अपने अन्दर इतनी योग्यता भर सकते हो कि वासनारहित होकर सब विहित कर्म कर सको।” इस प्रकार ये सब बातें बताकर भगवान् ने अर्जुन का संदेह दूर किया। फिर श्रीकृष्ण ने कहा-हे पार्थ! इस सम्बन्ध में यह एक नियम है कि जो व्यक्ति अपने विहित कर्म विरक्त होकर नहीं करता, उस व्यक्ति में यह योग्यता कभी आ ही नहीं सकती।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (293-344)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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