ज्ञानेश्वरी पृ. 171

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग

इसके उपरान्त जानने लायक और कोई बात ही नहीं रह जाती, अतः हे धनुर्धर! इसी बात को बार-बार दुहराने से क्या लाभ? इस प्रकार जहाँ शब्द की भी दाल नहीं गलती, जिसमें संकल्प-विकल्प की आयु ही समाप्त हो जाती है और जिसमें विचार की हवा घुस ही नहीं सकती, जो उन्मनी अवस्था का लावण्य है और तुरीयावस्था का तारुण्य है, जो अनादि और अनुपमेय परम तत्त्व है, जो विश्व का मूल है, जो योग-साधना का फल है, जो आनन्द का एकमात्र जीवन है, जो आकार की मर्यादा, मोक्ष की एकरूप अवस्था है और जिसमें आदि और अन्तलीन हो गये हैं, जो पंचमहाभूतों का मूल बीज है, महातेज का भी तेज है, और हे पार्थ! कहने का मतलब यह है कि जिसे मेरा आत्मस्वरूप ही जानना चाहिये और नास्तिकों के द्वारा भक्त वृन्द के छले जाने के कारण जिसे सगुण होकर यह चतुर्भुजरूप धारण करना पड़ा है, वह महासुखात्मक परमात्म तत्त्व सर्वथा वर्णनातीत है। किन्तु जिन मनुष्यों ने आत्मस्वरूप प्राप्त कर लिया है, अन्तिम साध्य की सिद्धि प्राप्त होने तक जिन्होंने दृढ़तापूर्वक प्रयास किया है। मेरे बताये हुए अष्टांग विधि से जिन्होंने अपना शरीर सार्थक किया है, वे लोग निर्मल होकर मेरे ही समान हो जाते हैं। वे शरीर से ऐसे दिखायी देते हैं, मानो परब्रह्मरूपी रस से शरीररूपी साँचे में ढले स्वयं परब्रह्म की ही प्रतिमूर्ति हैं। यदि अन्तःकरण में इसका पूर्ण अनुभव हो जाय तो फिर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि यह विश्व नहीं है, अपितु साक्षात् परब्रह्म ही हैं।”

इस पर अर्जुन ने कहा-“हे देव! आपके सारे कथन बिल्कुल ठीक हैं। क्योंकि हे प्रभो! आपने अभी साधना का जो प्रकार बतलाया है, उससे स्पष्ट रूप से परब्रह्म की प्राप्ति होती है। जो दृढ़तापूर्वक इस योग का अभ्यास करते हैं वे निश्चय ही ब्रह्मत्व को प्राप्त होते हैं। आपने अभी जो कुछ बतलाया है, सो मैं अच्छी तरह से समझ गया हूँ। हे देव! आपने अभी जो कुछ कहा, वह सुनकर ही मेरा चित्त ज्ञान से भर गया है। फिर जिसे इसका साक्षात् अनुभव प्राप्त हो गया हो और उसकी यदि तल्लीनता बढ़ गयी हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? इसीलिये अब इस सम्बन्ध में ऐसी कोई बात ही नहीं बची है कि जिसके विषय में मैं आपसे और कुछ पूछूँ। परन्तु फिर भी मैं एक बात पूछता हूँ। आप पल भर के लिये मेरी तरफ ध्यान दें। हे कृष्ण! आपने अभी जिस योग की चर्चा की है, वह तो ठीक तरह से मेरे चित्त में समा गया है। परन्तु योग्यताहीन होने के कारण मैं पंगुवत् हूँ और इसीलिये मुझसे इस योग का अभ्यास नहीं हो सकता। मेरे शरीर में जितना स्वाभाविक बल है, यदि उतने ही बल से यह योग सिद्ध हो सकता हो तो मैं बड़े ही आनन्द से इस मार्ग का अभ्यास करूँगा। लेकिन हे देव! आप जो कुछ कहते हैं, तदनुरूप कार्य करने की मुझमें सामर्थ्य ही न हो तो मुझे आपसे ऐसी ही बातें पूछनी चाहिये जो मेरी योग्यता के अनुकूल हों। मेरे मन में इसी प्रकार की इच्छा उत्पन्न हुई है, इसलिये मैं आपसे एक बात पूछता हूँ।”

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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