ज्ञानेश्वरी पृ. 170

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग

हे पाण्डुकुमार! जैसे समुद्र का जल मेघों के मुख से निकलकर नदियों और तालाबों में पहुँचता है और फिर उसी समुद्र में समाकर अपना मूलस्वरूप प्राप्त कर लेता है, वैसे ही जीवात्मा भी शरीर के सहयोग से परमात्मा में मिलकर उसके साथ एकत्व को प्राप्त कर लेता है। उस समय इस बात को सोचने का कोई अवसर ही नहीं मिलता कि जीवात्मा और परमात्मा दोनों पृथक्-पृथक् थे और अब परस्पर मिलकर एकत्व को प्राप्त हो गये हैं या दोनों मिलकर एक ही वस्तु हैं। इस प्रकार गगन में विलीन होने की जो स्थिति है उसका व्यक्ति को जब अनुभव होता है, तभी उसको उसका सम्यक् ज्ञान होता है। इसीलिये उस अनुभव की वार्ता वाणी के हाथ नहीं आती जिससे संवादरूपी गाँव में प्रवेश किया जा सके।

हे अर्जुन! जिस वैखरी वाणी को सामान्यतः अभिप्राय प्रकट करने की सामर्थ्य का अभिमान रहता है, वह भी इस सम्बन्ध में लड़खड़ाकर दूर ही चली जाती है। भौहों के पिछले हिस्से में केवल मकार की ही एकमात्र आड़ रहती है; पर उसे हटाकर गगन की तरफ प्रस्थान करने में प्राणवायु को भी श्रम करना पड़ता है। तत्पश्चात् जिस समय वह प्राणवायु ब्रह्मरन्ध्र के आकाश में मिलकर एकत्व को प्राप्त हो जाती है, उस समय शब्दों के लिये वर्णन करने लायक कोई बात ही बची नहीं रह जाती और कानों से सुनने लायक कोई बात ही बचती नहीं। इसीलिये शब्द-सामर्थ्य का समापन हो जाता है। इसके बाद तो सिर्फ यही है कि स्वयं उस गगन का ही लय हो जाय। जब महाशून्य के अथाह दह में उस गगन का भी कहीं नामोनिशान ही नहीं रह जाता, तब भला वहाँ शब्द की सामर्थ्य ही क्या है? अतः यह बात तीनों कालों में सत्य है कि यह विषय इतना स्पष्ट और सरल नहीं है जो वाणी की पकड़ में आ सके अथवा श्रवणेन्द्रिय के अधीन हो सके। यहाँ तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि यदि ऐसा सौभाग्य मिल जाय तो इसका साक्षात् अनुभव करना चाहिये और तब आत्मस्वरूप हो जाना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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