ज्ञानेश्वरी पृ. 161

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग

पहले-पहल पिण्डली को जाँघ से सटाकर पैर के तलवे को ऐसे तिरछे करने चाहिये कि वे ऊपर की ओर हो जायँ और तब उन्हें गुद-स्थान के मूल में रखकर बलपूर्वक दबाना चाहिये। दाहिने तलवे से गुद-स्थान की सीवन का ठीक बीच वाला भाग दबाना चाहिये। इस क्रिया से बायाँ तलवा बड़ी सरलता से ठीक ऊपर जमकर बैठ जायगा। गुदा और वृषण के मध्य में चार अंगुल का अन्तर होता है। उसमें से यदि दोनों ओर डेढ़-डेढ़ अंगुल छोड़ दिया जाय तो बीच में एक अंगुल बचा रह जाता है, वहीं पर एड़ी का पिछला भाग रखकर और सारे शरीर का वजन खूब नाप-तौलकर उस स्थान को ठीक तरह से दबाना चाहिये। फिर पीठ के निचले वाले हिस्से को इस प्रकार हलकेपन से ऊपर उठाना चाहिये, जिसमें यह भी भान न हो कि ऊपर का शरीर उठाया गया है अथवा नहीं और दोनों घुटनों को भी उसी प्रकार उठाकर रखना चाहिये। हे पार्थ! इस क्रिया से सारे शरीर का वजन एड़ी के केवल अग्र भाग पर आ पड़ेगा। हे अर्जुन! इस आसन का नाम मूलबन्ध है और इसी को लोग वज्रासन भी कहते हैं। इस प्रकार जब गुदा और वृषण के बीचो-बीच स्थित आधार चक्र पर ऊपर के शरीर का सारा भार पड़ता है, और शरीर के नीचे का भाग दबता है, तब आँतों में संचार करने वाला अपानवायु उलटे शरीर के भीतरी भाग की ओर अर्थात् पीछे की ओर हटने लगता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (186-200)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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