श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
इन दोनों में से जो रुचिकर जान पड़े, उसी का चुनाव अपने लिये कर लेना चाहिये और वहाँ एकान्त में जाकर बैठ जाना चाहिये। अपने लिये कौन-सा स्थान उचित होगा, यह जानने का तरीका यह है कि पहले इस बात का अनुभव कर लेना चाहिये कि हमारा मन किस स्थान पर शान्त और स्थिर रहेगा और तब उसी के अनुरूप स्थान का चुनाव करके उपर्युक्त विधि से वहाँ आसन लगाना चाहिये। आसन बिछाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि सबसे ऊपर स्वच्छ मृगचर्म हो, उसके नीचे धुले हुए वस्त्र और फिर उसके नीचे अत्यन्त कोमल कुश अच्छी तरह से बिछे हुए होने चाहिये। यह आसन यदि बहुत ऊँचा होगा तो शरीर हिले-डुलेगा और यदि बहुत नीचा होगा तो भूमि के साथ स्पर्श होने की सम्भावना रहेगी। इसलिये आसन को लगाते समय ऊँचाई-निचाई का भी ध्यान रखना चाहिये। किन्तु ये सब बातें बहुत अधिक चर्चा की विषय नहीं है। इसका आशय यह है कि आसन सुन्दर और सुखद होना चाहिये।[1]
फिर आसनासीन होकर अन्तःकरण को एकाग्र करके सद्गुरु का स्मरण करना चाहिये, पुनः अन्तरंग और बहिरंग, दोनों तरफ सात्त्विक वृत्ति से भरकर श्रद्धापूर्वक तब तक सद्गुरु का स्मरण करते रहना चाहिये, जब तक अहंभाव की जड़ता एकदम चली न जाय, सारे विषयों की बिल्कुल विस्मृति न हो जाय, ऐन्द्रिक चपलता एकदम रुक न जाय और चित्त एकाग्र होकर हृदय में प्रतिबिम्बित न हो जाय और इस प्रकार की स्वाभाविक एकता की स्थिति बिल्कुल मिल न जाय। फिर इसी आत्मज्ञान वाली स्थिति में आसनासीन रहना चाहिये। ऐसी स्थिति में यह अनुभव होने लगेगा कि शरीर स्वतः सँभलता हुआ ठीक रास्ते पर आ रहा है और देह में की वायु एक ही जगह पर इकट्ठी हो रही है। इस स्थिति में बैठते ही प्रवृत्ति विमुख हो जाती है, चित्त की समाधि निकट आ जाती है और योगाभ्यास का साधन होता है। अब हम यह बतलाते हैं कि उस समय मुद्रा की स्थिति कैसी होनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (163-185)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |