ज्ञानेश्वरी पृ. 16

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः॥20॥

किन्तु उस सेना में जो परम साहसी शूरवीर महारथी थे, उन्होंने सेना को फिर से सँभाला। वे सब-के-सब बड़ी तत्परता से आगे बढ़े और उन्होंने दुगुने उत्साह से आक्रमण किया। इनके कारण तीनों लोक क्षुब्ध हो उठे। उन धनुर्धर वीरों ने प्रलयकाल के बादलों की भाँति बाणों की लगातार वर्षा की। यह देखकर अर्जुन के मन में सन्तोष हुआ और तब उसने अत्यधिक उत्साह से उस सेना पर दृष्टिपात किया। उस समय कौरवों को युद्ध के लिये तैयार देखकर पाण्डु पुत्र अर्जुन ने भी सहज में अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया।[1]

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥21॥

तब अर्जुन ने हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्ण से कहा-“हे देव! अब आप रथ को जल्दी से आगे बढ़ाकर दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कर दें।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (164-168)
  2. (169)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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