ज्ञानेश्वरी पृ. 159

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥11॥

अच्छा, अब मैं तुम्हारे समक्ष सारी बातों का सांगोपांग निरूपण करता हूँ; पर इन सब बातों का अच्छी तहर से उपयोग तभी सम्भव है, जब इनका अनुभव किया जाय। योगाभ्यास के लिये पहले-पहल एक उचित स्थान ढूँढ़ना चाहिये, वह स्थान ऐसा हो कि यदि आराम करने की लालसा से मनुष्य वहाँ जाकर बैठे, तो फिर वहाँ से उठने का नाम तक न ले। वह स्थान ऐसा होना चाहिये कि उसे देखते ही वैराग्य दुगुना हो जाय। वहाँ यदि सन्तों का निवास स्थान हो तो उससे सन्तोष को बल मिलता है और मन को धैर्य का आश्रय। जिस स्थान पर स्वयं अभ्यास अपने-आपको साधक से करवा लेता है, अर्थात् जिस स्थान पर अपने-आप अभ्यास हो जाता है और अनुभव स्वयं साधक के अंतःकरण को माला पहना देता है; इसी प्रकार जिस जगह रमणीयता की महत्ता नित्य-निरन्तर बनी रहती है; हे पार्थ! जहाँ पहुँचते ही पाखण्डियों के चित्त में भी तपस्या करने की बुद्धि उत्पन्न हो, जिस स्थान पर कोई राही एकाएक पहुँचकर यदि सकाम हो तो भी वह उस स्थान से लौटने की बात एकदम भूल जाय, इस प्रकार का स्थान न रहने वालों को भी रोक लेता है।

भ्रम में पड़े हुए लोगों को भी स्थिर करता है और वैराग्य को थपथपाकर जाग्रत करता है। वह स्थान ऐसा हो कि उसे देखने मात्र से ही विषयीजनों को भी ऐसा मालूम हो कि मैं संसार का राज्य-सुख त्यागकर इसी स्थान पर शान्तिपूर्वक पड़ा रहूँ। इसके अलावा वह स्थान इतना पावन होना चाहिये कि वहाँ साक्षात् ब्रह्म ही दृष्टिगोचर हो। इतना ही नहीं, वहाँ योग का अभ्यास करने वालों की भी बस्ती हो और वहाँ किसी का भी आना-जाना न हो। उस स्थान पर अमृत के समान जड़ से ही मीठे और सदा फल देने वाले सघन वृक्ष होने चाहिये। वहाँ वर्षा-ऋतु के अलावा अन्य ऋतुओं में भी कदम-कदम पर जल सुलभ हो और विशेषरूप से उस स्थान पर निर्मल झरने भी होने चाहिये। उस स्थान पर गर्मी साधारण पड़ती हो और शीतल वायु मन्द-मन्द बहती हो, वह स्थान एकदम शान्त और निःस्तब्ध होना चाहिये वहाँ हिंसक पशुओं की भीड़ नहीं होनी चाहिये, तोते और भ्रमर तक नहीं होने चाहिये। वह स्थान इस तरह का होना चाहिये कि जल के सहारे जीने वाले हंस और दो-चार सारस आदि पक्षी यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हों और जब तक कोई कोयल वहाँ आकर बैठती हो, इसी प्रकार सदा तो नहीं, पर हाँ, जब तब कुछ मोर भी उस स्थान पर आया-जाया करते हों, तो भी कोई बात नहीं। हे पार्थ! ऐसे जगह की तलाश सावधानीपूर्वक करनी चाहिये और फिर वहाँ कोई मठ (आश्रम) अथवा शिवालय देखना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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