श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
फिर इस प्रकार के मनुष्य में सुहृद् और शत्रु, उदासीन और मित्र इत्यादि भेदभावों की विचित्र कल्पना भला हो ही कैसे सकती है? उसकी आत्मस्वरूपवाली दृष्टि में कौन किसका मित्र और कौन किसका शत्रु रह सकता है उसे ऐसा बोध हो चुका रहता है कि मैं ही सारा विश्व हूँ। फिर हे किरीटी! उसकी दृष्टि में यह भाव कहाँ से बचा रह सकता है कि यह अधम है और वह उत्तम है? पर यदि पारस पत्थर को ही कसौटी के रूप में उपयोग किया जाय तो फिर उस पर सुवर्ण के पृथक्-पृथक् कस कैसे लग सकते हैं? उस कसौटी पर तो जो-जो चीज घिसी जायगी, वह सब चीज विशुद्ध सोना ही बन जायगी। इस प्रकार जिस मनुष्य में समभाव वाला गुण आ जाता है, उस व्यक्ति को चराचर जगत् एकमात्र आत्मरूप ही दृष्टिगोचर होता है। चाहे ये विश्वरूपी अलंकार पृथक्-पृथक् स्वरूप के भले ही दिखायी पड़ें, किन्तु वह यह बात भली-भाँति जानता है कि ये सब एक ही पर ब्रह्मरूपी स्वर्ण से निर्मित हैं। यह उत्तम ज्ञान जिसे मिल जाता है, वह बाहर के और बनावटी स्वरूपों के भ्रम में नहीं पड़ता है। यदि वस्त्र के विषय में भली-भाँति विचार किया जाय तो यही ज्ञात होता है कि यह सब तन्तुओं की ही सृष्टि है। इसी प्रकार वह भी दृढ़तापूर्वक यही विचार करता है कि इस पूरे विश्व में परब्रह्म के सिवा अन्य कोई वस्तु है ही नहीं, जिसे ऐसा अनुभव हो जाता है, वही समबुद्धि होता है। समबुद्धि इससे भिन्न और कोई चीज नहीं है। जिसका नाम तीर्थराज के तुल्य है, जिसके दर्शन से शान्ति उत्पन्न होती हैं, जिसके संग से भ्रान्त लोगों को भी आत्मबोध हो जाता है, जिसके वचन से ही धर्म जीवित है, जिसकी दृष्टि से महासिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं तथा स्वर्ग-सुख आदि जिसके लिये सिर्फ खिलवाड़ होते हैं, उसका यदि अकस्मात् भी चित्त में स्मरण हो जाय तो वह स्मरण करने वाले को अपनी योग्यता प्राप्त करा देता है। बहुत क्या कहें, उसकी स्तुति करने से भी महान् लाभ होता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (94-104)
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