ज्ञानेश्वरी पृ. 149

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्म-संयम योग


यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥4॥

जिसकी इन्द्रियों के घर में विषयों का अवागमन नहीं होता है और जो आत्मबोधरूपी कमरे में सोया रहता है, जिसके मन को सुख-दुःखों के स्वयं धक्के देने के बावजूद वह जागता नहीं, विषयभोग अत्यन्त नजदीक आये तो भी, यह क्या है, ऐसा स्मरण भी जिसको होता नहीं। इन्द्रियों को कर्मों में लगाने पर भी जिसके मन में कर्म-फल के विषय में लेशमात्र भी आसक्ति नहीं रहती, जो देहधारी रहते हुए ऊपर वर्णन किये जैसा रहता है, जो जागृत पुरुष-जैसा सब व्यवहार करता है परन्तु निद्रायुक्त पुरुष-जैसा क्रिया शून्य दीखता है, वही योग में निष्णात है, ऐसा तुम समझो। “हे अनन्त! यह बात सुनकर तो मुझे बहुत ही आश्चर्य हो रहा है। अब आप मुझे यह बतलावें कि उसे ऐसी योग्यता कौन देता है।”[1]


उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ॥5॥

तब श्रीकृष्ण ने हँसकर कहा-“हे पार्थ! तुम्हारा यह कथन अत्यन्त ही आश्चर्यजनक है, भला इस अद्वैत की स्थिति में कौन किसी को क्या दे सकता है? जब व्यक्ति को अविवेकरूपी सेज पर कठिन अविद्या की निद्रा सताती है, तभी उसको जन्म-मृत्युरूपी दुःस्वप्न का भोग प्राप्त होता है, किन्तु आगे चलकर जिस समय वह अचानक जाग उठता है, उस समय उसे यह समझ में आता है कि स्वप्नावस्था की वे सब बातें एकदम झूठी थीं। पर उस पहले वाली अविद्या की तरह यह आत्मज्ञान भी स्वयं उसी को होता है। हे धनंजय! वह एकमान अपने मिथ्या देहाभिमान के चक्कर में पड़कर स्वयं अपना ही नाश करता है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (62-66)
  2. (67-70)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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