श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
हे पार्थ! जो संन्यासी है वही योगी है, उस एकवाक्यता की विजयपता का संसार में अनेक शास्त्रों ने फहरायी है। शास्त्रकारों ने अपने अनुभव से यही निश्चित किया है कि कर्म करते रहने की स्थिति में जहाँ संकल्प-विकल्प के सूत्र त्याग देने के कारण नष्ट हो जाते हैं, बस वहीं योग साररूपी ब्रह्म की भेंट हो जाती है।[1]
हे पार्थ! यदि कर्मयोगरूपी पहाड़ की चोटी पर पहुँचना हो तो यह कर्म मार्गरूपी सोपान का परित्याग कभी नहीं करना चाहिये। इस मार्ग से चलते हुए पहले यम-नियमरूपी आधारभूमि पर से योगासनरूपी पगडंडी पकड़कर प्राणायाम के टीले पर चढ़ जाना चाहिये, फिर प्रत्याहाररूपी मध्य भाग वाली ऐसी पहाड़ी पड़ती है जहाँ इतनी फिसलन होती है कि बुद्धि के पैर भी लड़खड़ा जाते हैं। जहाँ पहुँचने पर हठयोगियों का दृढ़ संकल्प भी खण्डित हो जाता है और वे लुढ़क जाते हैं; परन्तु अभ्यास के बल से इस प्रत्याहार वाले बीच के मार्ग में शनैः-शनैः वैराग्य का आश्रय मिलने लगता है। इस प्रकार प्राण और अपानवायु के वाहन पर सवार होते हुए धारणा के क्षेत्र में पहुँचना चाहिये। फिर इस क्षेत्र को पार करते हुए तब तक चलते रहना चाहिये, जब तक ध्यान के सिरे पर न पहुँचा जाय। वहाँ पहुँचकर इस मार्ग का अन्त हो जाता है और प्रवृत्ति की अभिलाषा भी समाप्त हो जाती है; क्योंकि यहीं साध्य और साधन दोनों परस्पर मिलकर एकरूप हो जाते हैं। यहाँ पहुँचते ही योगी इस तरह की चौरस भूमि पर समाधिस्थ हो जाता है, जहाँ से न तो आगे जाने की कोई बात ही रहती और न तो पिछले मार्ग की कोई स्मृति ही शेष रहती है। इस उपाय से योग का साधन करके जो मनुष्य उच्चावस्था तक पहुँचता है, मैं उसके लक्षण बतलाता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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