ज्ञानेश्वरी पृ. 147

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


श्रीभगवानुवाच
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: ॥1॥

हे अर्जुन! सुन, योगी और संन्यासी-ये दोनों एक ही हैं। हो सकता है कि तुम इन दोनों को पृथक्-पृथक् मानते हो, पर विचार करने से ये दोनों एक ही जान पड़ते हैं। यदि यह नाम-भेदवाला भ्रम मिटा दिया जाय तो योग ही संन्यास सिद्ध होता है और यदि ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो इनमें कोई भेद ही नहीं रहता। जैसे हम एक ही व्यक्ति को अलग-अलग नामों से पुकारते हैं, अथवा जैसे दो अलग-अलग रास्तों से एक ही जगह पर (निश्चित स्थान पर) पहुँचते हैं अथवा जैसे स्वभावतः एकरूप रहने वाला पानी भिन्न-भिन्न पात्रों में भरा जाने पर भी एकरूप ही रहता है, वैसे ही योग और संन्यास का अन्तर एकमात्र दिखावटी है, वास्तविक नहीं।

हे अर्जुन! सुनो! संसार में बहुमान्य सिद्धान्त यही है कि जो मनुष्य कर्मों का आरचरण करता हुआ भी उन कर्मों के फल से आसक्ति नहीं रखता, उसी को योगी जानना चाहिये। जैसे यह पृथ्वी सहजभाव से अहम् बुद्धि के बिना ही वृक्ष आदि उद्भिज्जों की सृष्टि करती है, परन्तु उनके बीजों या फलों की अपेक्षा नहीं करती, वैसे ही जो परब्रह्म की व्यापकता का अवलम्ब लेकर अपनी स्वभाव सिद्ध स्थिति के अनुरूप जिस समय जो उचित कर्तव्य जान पड़ता है, उस समय उसे कर डालता है, पर फिर भी जिसमें देहबुद्धि का अहम् लेशमात्र भी नहीं होता अर्थात् जिसमें कर्तृत्वभाव नहीं रहता और जो फलासक्ति को अपने चित्त तक पहुँचने ही नहीं देता, उसी को संन्यासी जानना चाहिये और हे पार्थ! वास्तव में वही सच्चा योगीश्वर है। पर जिससे इस योग-युक्ति का साधन नहीं होता और जो स्वाभाविक तथा नैमित्तिक कर्मों को एकमात्र बाँधने वाला मानकर त्याग देता है, वह साथ-ही-साथ कुछ अन्य कर्मों को अपने साथ लगा लेता है। जैसे अपने देह में लगा हुआ एक लेप पोंछकर तुरन्त ही दूसरा लेप लगा लिया जाय, वैसी ही स्थिति उन लोगों की होती है जो एकमात्र आग्रह के अधीन होकर ऐसा व्यवहार करते है और बेकार की विवेचना में पड़ते हैं। भइया अर्जुन! एक तो गृहस्थ-आश्रम का बोझ पहले से ही स्वभावतः सिर पर है, अब उस बोझ का निर्वहन ठीक तरह से न करके शीघ्रता में संन्यास का एक दूसरा भार लेकर अपना बोझ और क्यों बढ़ाया जाय? इसीलिये श्रौत, स्मार्त्त और होम आदि कर्मों का परित्याग न करते हुए और न तो कभी आचार की मार्यादा का उल्लंघन करते हुए बस अपने कर्म का पालन करने से ही अब कर्मयोग स्वभावतः ही आत्म सुखदायक हो जाता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (39-41)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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