ज्ञानेश्वरी पृ. 143

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग

हे देव! सच्ची बात तो यह है कि आपने अभी साधना के जिस मार्ग को बतलाया है, वह हमारे-जैसे कमजोर मनुष्यों के लिये सांख्ययोग (ज्ञानमार्ग) की अपेक्षा वैसा ही अधिक सुगम और सुलभ है, जिस प्रकार गहरे पानी में तैरकर पार जाने की अपेक्षा वह जलपथ ज्यादा सुगम होता है जिसे कोई मनुष्य चलकर पार कर लेता है। वैसे तो यह योगमार्वा सांख्ययोग की अपेक्षा सुगम है, अब यदि ऐसे मार्ग को तलाशने में कुछ अधिक समय लगे तो इसमें अड़चन ही क्या है? इसलिये अब समस्त शंकाओं का समाधान करने के लिये फिर एक बार इन सब विषयों का विस्तार से कहें।”

इस पर श्रीकृष्ण ने कहा-“तुम्हें यह मार्ग रुचिकर लगता है न? तो फिर उस साधन-मार्ग का वर्णन करने में मेरा क्या जाता है। सुनो, मैं फिर से बड़ी खुशी से सारी-की-सारी बातें तुम्हें बतलाता हूँ। हे अर्जुन! जब तुम्हारे मन में इस विषयों को सुनने की तीव्र अभिलाषा है और इन विषयों को सुनकर इसके अनुसार आचरण करने के लिये उद्यत भी हो तो इस साधन-मार्ग को बतलाने में मैं ही क्यों हिचकूँ?

एक तो माता का अन्तःकरण, उसमें अभिरुचि का निमित्त बना है, फिर उस ममता के अद्भुतता की कल्पना किसको आयेगी? वह हरि की कृपादृष्टि मानो करुण रस की बरसात है अथवा नवीन स्नेह की सृष्टि है, कैसे कहूँ? ये रहने दो, कृष्ण के उस दृष्टि का वर्णन भी कैसे करूँ? ये हमें समझ में नहीं आता। न जाने वह दृष्टि अमृत की ढली हुई जीवन्त पुत्तलिका थी अथवा वह प्रेम रस को ही पीकर उन्मत्त हुई थी, जो वह अर्जुन के मोह-पाश में इस तरह उलझ गयी कि वहाँ से उसका निकलना ही असम्भव था। पर इस प्रकार के जितने विवेचन किये जायँगे, उन सबसे केवल विषयान्तर ही होगा। परन्तु इतनी पक्की बात है कि श्रीकृष्ण के उस स्नेह से भरे हुए भाव का ठीक-ठीक वर्णन नहीं किया जा सकता। पर इसमें आश्चर्य ही क्या है? जो ईश्वर स्वयं ही अपना सम्पूर्ण वर्णन नहीं कर सकता, फिर वह किसकी बुद्धि में आ सकता है? परन्तु जिस प्रकार श्रीकृष्ण आग्रहपूर्वक कह रहे थे कि “हे तात! सुनो, सुनो” उनके इस प्रकार कहने से यही प्रतीत होता हे कि वे स्वभावतः अर्जुन के मोह-पाश में आबद्ध हो गये थे। उस समय श्रीकृष्ण ने कहा-“हे अर्जुन! जिस ढंग से यह विषय तुम्हारी समझ में भली-भाँति आ सके, उसी ढंग से मैं इसका निरूपण अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक करूँगा। वह योगमार्ग कौन-सा है? उसकी उपयोगिता क्या है? अथवा उसके अधिकारी कौन लोग होते हैं? इत्यादि, इस मार्ग के विषय में जितने प्रश्न हो सकते हैं उन सबके उत्तर मैं तुम्हें बतलाता हूँ। तुम मन लगाकर सुनो।” तत्पश्चात् श्रीहरि ने जो कुछ कहा, उस कथा का विवेचन आगे किया गया है। अब श्रीनिवृत्तिनाथ का दास मैं ज्ञानदेव श्रोताओं से कहता हूँ कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन से जो सख्य था, उसे ज्यों-का-त्यों रखते हुए अर्जुन को अष्टांगयोग के साधन का उपदेश किया था, वह मैं स्पष्ट रूप से बतलाता हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (158-180)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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