ज्ञानेश्वरी पृ. 141

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥26॥

जो लोग अपने मन को विषयों से पृथक् कर लेते हैं और उसको पूर्णतया अपने अधीन रखते हैं, वे लोग जिस जगह पर निश्चिन्त होकर शयन करते हैं और फिर कभी जागते ही नहीं, अर्थात् वृत्ति पर आते ही नहीं, हे अर्जुन! जो मोक्षरूप परब्रह्म है, आत्मज्ञानियों का जो साध्य है, वही वे पुरुष हैं, ऐसा तुम समझो। शायद तुम यह पूछोगे कि वे मनुष्य इस अवस्था तक कैसे पहुँचे हैं और देह के होते हुए भी उन लोगों ने कैसे यह ब्रह्मत्व प्राप्त किया है, तो मैं यह विषय भी संक्षेप में तुम्हें बतला देता हूँ; मन लगाकर सुनो।[1]


स्पर्शान्कृत्वा वहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो: ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥27॥

जो वैराग्य की शक्ति से सारे विषयों को निकाल फेंकते हैं और अपने शरीर में मन के वृत्ति को एकाग्र कर लेते हैं, वे अपनी दृष्टि को उलटकर उस सन्धि-स्थान पर लगा लेते हैं, जहाँ दोनों भौंहें मिलती हैं और तब दायें और बायें घ्राणेन्द्रिय के दोनों छिद्र बन्द करके प्राणवायु और अपानवायु को एक में मिला लेते हैं तथा उन्हें अपने चित्त के साथ चिदाकाश की ओर ले जाते हैं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (148-150)
  2. (151-153)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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