श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-5
कर्म संन्यास योग
जो लोग अपने मन को विषयों से पृथक् कर लेते हैं और उसको पूर्णतया अपने अधीन रखते हैं, वे लोग जिस जगह पर निश्चिन्त होकर शयन करते हैं और फिर कभी जागते ही नहीं, अर्थात् वृत्ति पर आते ही नहीं, हे अर्जुन! जो मोक्षरूप परब्रह्म है, आत्मज्ञानियों का जो साध्य है, वही वे पुरुष हैं, ऐसा तुम समझो। शायद तुम यह पूछोगे कि वे मनुष्य इस अवस्था तक कैसे पहुँचे हैं और देह के होते हुए भी उन लोगों ने कैसे यह ब्रह्मत्व प्राप्त किया है, तो मैं यह विषय भी संक्षेप में तुम्हें बतला देता हूँ; मन लगाकर सुनो।[1]
जो वैराग्य की शक्ति से सारे विषयों को निकाल फेंकते हैं और अपने शरीर में मन के वृत्ति को एकाग्र कर लेते हैं, वे अपनी दृष्टि को उलटकर उस सन्धि-स्थान पर लगा लेते हैं, जहाँ दोनों भौंहें मिलती हैं और तब दायें और बायें घ्राणेन्द्रिय के दोनों छिद्र बन्द करके प्राणवायु और अपानवायु को एक में मिला लेते हैं तथा उन्हें अपने चित्त के साथ चिदाकाश की ओर ले जाते हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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