श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ। वह भयानक कोलाहल सुनकर जब स्वर्ग में इस प्रकार की चर्चाएँ हो रही थीं, इतने में ही इधर पाण्डवों की सेना में क्या हुआ? उसका भी हाल सुनें। जो रथ विजयश्री का मानो सर्वस्व था अथवा जो महातेज का भाण्डार ही था, जिसमें गरुड़ की बराबरी करने वाले वेगवान् चार घोड़े जुते हुए थे, और जिसके तेज से सब दिशाएँ परिपूर्ण थीं, जो दिव्य रथ ऐसा शोभायमान हो रहा था, जैसे कि पंखयुक्त मेरु पर्वत हो। सोच लो, जिस रथ पर सारथि का काम करने वाले प्रत्यक्ष वैकुण्ठ के राजा श्रीकृष्ण हैं, उस रथ के गुणों का क्या वर्णन करूँ? रथ पर लगाये हुए पताका के ऊपर जो वानर (मारुति) हैं; वो प्रत्यक्ष शंकर हैं और शांर्गधर श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी थे। अब देखिये, यह प्रभु की कितनी अद्भुत बात है। उन परमात्मा का अपने भक्तों के प्रति इतना विलक्षण प्रेम है कि उसी प्रेम में आबद्ध होकर वे अपने भक्त अर्जुन के रथ को स्वयं ही हाँक रहे हैं। हृषीकेश के अपने भक्त पार्थ को तो अपने पीछे कर लिया और स्वयं उसके आगे होकर लीला से उन श्रीकृष्ण ने अपना ‘पांचजन्य’ नामक शंख बजाया। उसकी वो भयंकर आवाज गम्भीररूप से घूमती रही। जिस तरह उदित हुआ सूर्य नक्षत्रों को ढक लेता है। उसी प्रकार कौरवों की सेना में जहाँ-तहाँ डुमडुमाने वाली जो वाद्यों की आवाज (कोलाहल) थी वह (उस शंख के महानाद से) कहाँ नष्ट हो गयी, उसका कुछ भी पता न लगा। उसी प्रकार बाद में अर्जुन ने अति गम्भीर आवाज से ‘देवदत्त’ नामक अपना शंख बजाया। उस समय दोनों शंखों की ध्वनियाँ परस्पर मिलते ही ऐसी प्रतीत होने लगीं मानो इस ब्रह्माण्ड के टुकड़े-टुकड़े हो जायँगे ऐसा लगने लगा। इतने में आवेश में आकर भीमसेन ने महाकाल की भाँति उत्तेजित होकर अपना ‘पौण्ड्र’ नामक महाशंख बजाया, जिसकी गम्भीर गर्जना प्रलयकाल के मेघ के समान हो गयी। बस, तत्क्षण राजा युधिष्ठिर ने (धर्मराज ने) अपना ‘अनंतविजय’ नामक शंख बजाया। इसी प्रकार ‘सुघोष’ नामक शंख को नकुल ने एवं ‘मणिपुष्पक’ नामक शंख को सहदेव ने बजाया। इन दोनों की ध्वनि से स्वयं यमराज (काल) भी घबरा उठे।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (137-150)
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