ज्ञानेश्वरी पृ. 139

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर: ॥23॥

जो ज्ञानी मनुष्य देह रहते हुए देह के समस्त विकारों को अपने अधीन कर लेते हैं, उनके लिये विषयों से उत्पन्न होने वाले दुःख नाम मात्र भी नहीं रह जाते। जो लोग बाह्य-विषयों के नाम तक नहीं जानते, उनके अन्तःकरण में एक अखण्ड सुख भरा रहता है, क्योंकि उनको ब्रह्मसुख का अनुभव है। परन्तु इस सुख का भोग करने का ढंग कुछ निराला ही है। जैसे पक्षी फलों का स्वाद नहीं लेते हैं। वैसे ही वे लोग सुखों का स्वाद नहीं लेते। वे लोग उस सुख का भोग करते हुए भी अपने भोक्तृभाव को बिसराये रहते हैं। इस आत्ससुख का सेवन करते समय उनमें इस तरह की तन्मयता आ जाती है कि वे अहंभाव का परदा हटा देते हैं, और तब उनकी वह तन्मयता उनके साथ ऐसा दृढ़ आलिंगन करती है कि वह आलिंगन होते ही जीवात्मा ठीक वैसे ही परमात्मा के साथ एकदम एकाकार हो जाता है, जैसे जल के साथ जल मिलकर एकाकार हो जाता है। अथवा जैसे आकाश में वायु के मिल जाने पर आकाश और वायु का भेद समाप्त हो जाता है। तब ऐसी अवस्था में स्वरूप से केवल ब्रह्मसुख शेष रहता है। इस प्रकार द्वैत का नाम मिट जाता है। अब यदि यह कहा जाय कि उस समय एकमात्र एकता ही शेष रहती है, तो भी उस एकता का ज्ञान कराने वाला साक्षी ही नहीं रह जाता तो ऐसी अवस्था में साक्षी भी कौन रहा?[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (129-135)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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