ज्ञानेश्वरी पृ. 136

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित: ॥20।

जैसे मृगजल की बाढ़ से गिरिराज नहीं डगमगाता, वैसे ही शुभ और अशुभ की उपलब्धि होने से योगी में भी कभी कोई विकृति नहीं आती। जो व्यक्ति इस प्रकार का हो, उसी को तत्तवः समदृष्टि वाला जानना चाहिये। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पाण्डु पुत्र! वही प्रत्यक्ष ब्रह्म है।[1]


बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥21॥

जो मनुष्य कभी आत्मस्वरूप को त्यागकर इन्द्रियों के अधीन नहीं होता, यदि वह विषयों का उपभोग न करे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? उसका अन्तरंग स्वाभाविक और असीम आत्मानन्द से पूर्णतया सुखी रहता है और इसलिये वह कभी इस आनन्द के बाहर पैर नहीं रखता। भला जिस चक्रवाक ने कुमुददलों के पत्तल में चन्द्रकिरणों का दिव्य भोजन किया हो, वह क्या कभी रेत के कण खायेगा? वैसे ही जिसे आत्मसुख प्राप्त हो जाय और जो ब्रह्मस्वरूप हो जाय, उसके विषय में यह बताने की कोई जरूरत ही नहीं है कि विषयों से उसका स्वतः ही पिण्ड छूट गया। अब हे पार्थ! जरा इस बात का भी ठीक तरह से विचार करके देखो कि इन विषय-सुखों के जाल में कौन फँसता है?[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (103-104)
  2. (105-109)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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