श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-5
कर्म संन्यास योग
जैसे मृगजल की बाढ़ से गिरिराज नहीं डगमगाता, वैसे ही शुभ और अशुभ की उपलब्धि होने से योगी में भी कभी कोई विकृति नहीं आती। जो व्यक्ति इस प्रकार का हो, उसी को तत्तवः समदृष्टि वाला जानना चाहिये। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पाण्डु पुत्र! वही प्रत्यक्ष ब्रह्म है।[1]
जो मनुष्य कभी आत्मस्वरूप को त्यागकर इन्द्रियों के अधीन नहीं होता, यदि वह विषयों का उपभोग न करे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? उसका अन्तरंग स्वाभाविक और असीम आत्मानन्द से पूर्णतया सुखी रहता है और इसलिये वह कभी इस आनन्द के बाहर पैर नहीं रखता। भला जिस चक्रवाक ने कुमुददलों के पत्तल में चन्द्रकिरणों का दिव्य भोजन किया हो, वह क्या कभी रेत के कण खायेगा? वैसे ही जिसे आत्मसुख प्राप्त हो जाय और जो ब्रह्मस्वरूप हो जाय, उसके विषय में यह बताने की कोई जरूरत ही नहीं है कि विषयों से उसका स्वतः ही पिण्ड छूट गया। अब हे पार्थ! जरा इस बात का भी ठीक तरह से विचार करके देखो कि इन विषय-सुखों के जाल में कौन फँसता है?[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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