ज्ञानेश्वरी पृ. 135

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: ॥18॥

यह मच्छर है, यह हाथी है, यह चाण्डाल है, यह ब्राह्मण है, वह पराया है, यह मेरा है आदि के सम्बन्ध में इस प्रकार के भेदभाव कहाँ रह जाते हैं? अथवा इस प्रकार की सारी कल्पनाएँ समाप्त हो जाती हैं कि यह धेनु है, यह श्वान है, यह श्रेष्ठ है, यह अधम है; क्योंकि जाग्रदवस्था में हो, फिर उसे स्वप्न कहाँ से दृष्टिगोचर होगा? ये सब भेद तभी दिखायी पड़ते हैं, जब अहंभाव शेष बचा रहता है। जिस समय वह अहंभाव पूर्णतया समाप्त हो जाता है, उस समय विषमता का कहीं पता भी नहीं चलता।[1]


इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्माणि ते स्थिता: ॥19॥

अत: तुम यह अच्छी तरह से जान लो कि इस समदृष्टि का रहस्य ही यह है कि व्यक्ति यह समझ ले कि सर्वत्र और सदा समभाव से रहने वाला जो ‘एकमेवाद्वितीयम्’ ब्रह्म है, वह मैं ही हूँ। जो विषयों का संग बिना त्यागे हुए और इन्द्रियों का दमन किये बिना कामनारहित होकर निःसंगता का भोग करता है, जो सामान्य जनों की ही भाँति सब प्रकार के आचरण करता है, परन्तु सांसारिक वस्तुओं का अज्ञानजन्य मोह त्याग देता है, जो उसी प्रकार संसार को बिना दिखायी पड़े शरीर में रहता है, जिस प्रकार किसी व्यक्ति को पकड़ने वाला भूत किसी की दृष्टि में ही नहीं आता, अथवा जो देखने में तो उसी प्रकार नाम और रूप की दृष्टि से पृथक् दृष्टिगोचर होता है, जिस प्रकार वायु के सहयोग से पानी में उठने वाली लहरों को तो लोग पानी से पृथक् समझते और उनका पृथक् नामकरण (लहर) भी करते हैं, पर फिर भी जो केवल ब्रह्म ही रहता है और जिसका मन सब स्थानों और सब जीवों में निरन्तर समभाव से विचरण करता है और इस प्रकार जो समदृष्टि हो जाता है, उस व्यक्ति का एक विशिष्ट लक्षण भी होता है। हे अर्जुन! मैं वह विशिष्ट लक्षण तुम्हें संक्षेप में बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। उसके बारे में विचार करो।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (93-95)
  2. (96-102)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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