श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-5
कर्म संन्यास योग
जो इस आत्मयोग से सम्पन्न है और जिसके हृदय में कर्मफल की आशा है ही नहीं, उसे इस संसार में (घर में) शान्ति स्वयं ही आगे बढ़कर वरण कर लेती है। परन्तु हे किरीटी! जो लोग आत्मयोगी नहीं हैं, वे लोग कर्मों की डोरी और फलाकांक्षा की गाँठ से फलभोगरूपी खूँटे के साथ कस कर बाँध दिये जाते हैं।[1]
जैसे और लोग फल की आशा से कर्म करते हैं वैसे ही योगिजन भी कर्म करते हैं; परन्तु वे लोग यह समझकर उन कर्मों के प्रति उपेक्षाभाव रखते हैं कि ये सब कर्म हमारे द्वारा सम्पन्न नहीं होते। फिर इस तरह का मनुष्य जिस ओर अपनी दृष्टि डालता है, उसी ओर सुख की सृष्टि होने लगती है। वह जहाँ चाहे वहीं महाबोध उपस्थित रहता है। वह इस नौ द्वारों वाले देह में रहते हुए भी देहभाव से रहित रहता है और फल की आशा को त्याग चुका होता है, इसलिये कर्म करते हुए भी वह अकर्ता ही बना रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (71-72)
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