ज्ञानेश्वरी पृ. 132

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥12॥

जो इस आत्मयोग से सम्पन्न है और जिसके हृदय में कर्मफल की आशा है ही नहीं, उसे इस संसार में (घर में) शान्ति स्वयं ही आगे बढ़कर वरण कर लेती है। परन्तु हे किरीटी! जो लोग आत्मयोगी नहीं हैं, वे लोग कर्मों की डोरी और फलाकांक्षा की गाँठ से फलभोगरूपी खूँटे के साथ कस कर बाँध दिये जाते हैं।[1]


सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥13॥

जैसे और लोग फल की आशा से कर्म करते हैं वैसे ही योगिजन भी कर्म करते हैं; परन्तु वे लोग यह समझकर उन कर्मों के प्रति उपेक्षाभाव रखते हैं कि ये सब कर्म हमारे द्वारा सम्पन्न नहीं होते। फिर इस तरह का मनुष्य जिस ओर अपनी दृष्टि डालता है, उसी ओर सुख की सृष्टि होने लगती है। वह जहाँ चाहे वहीं महाबोध उपस्थित रहता है। वह इस नौ द्वारों वाले देह में रहते हुए भी देहभाव से रहित रहता है और फल की आशा को त्याग चुका होता है, इसलिये कर्म करते हुए भी वह अकर्ता ही बना रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (71-72)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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