ज्ञानेश्वरी पृ. 130

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य: ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।10॥

जिस समय चैतन्य के आश्रय से अकर्तृत्व स्थिति प्राप्त होती है, उस समय समस्त इन्द्रियों की वृत्तियाँ अपने-अपने विषयों में विचरण करती रहती हैं। जैसे दीपक के प्रकाश में गृह के सारे क्रिया-कलाप होते रहते हैं, वैसे ही कर्मयोगियों के देह-सम्बन्धी सारे कार्य होते रहते हैं। कर्मयोगी सब कर्म करता है, पर जैसे जल में रहते हुए भी कमल-पत्र उस जल से नहीं भींगता, वैसे ही कर्म करते हुए भी कर्मयोगियों के साथ कर्म का लेप नहीं होता।[1]


कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥11॥

देखो! जो कर्म बुद्धि के समझ आने के पूर्व और मन में विचार उत्पन्न होने के पहले ही होते हैं, इन कर्मों के व्यवहार को ‘कायिक’ व्यवहार कहते हैं। यही बात मैं तुम्हें बहुत ही सरल तरीके से बतलाता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो। जैसे कोई बालक निष्कारण यूँ ही कुछ-न-कुछ चेष्टा करता रहता है, वैसे ही योगिजन मन में किसी प्रकार की वासना न रखते हुए केवल शरीर से ही कर्मों का व्यवहार करते हैं। फिर जब पंचमहाभूतों से निर्मित यह शरीर निद्रावस्था में रहता है, तब वैसे ही अकेला अपना समस्त व्यापार चलाता रहता है, जैसे वह स्वप्नावस्था में करता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (48-50)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः