ज्ञानेश्वरी पृ. 13

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥13॥

अनेक प्रकार के रणवाद्य जहाँ-तहाँ इतने भयंकर और कर्कश बजने लगे कि, ‘मैं-मैं’ बोलने वालों को भी वो महाप्रलय लगा। नगारे, डंके, ढोल, शंख, बड़ी झाँझ और रणसिंघे और महायोद्धाओं की भयंकर गर्जना (इन सबकी एकाएक भीड़ हो गयी।) अन्य कितने ही योद्धा आवेश में आकर ताल ठोंकने लगे, कोई एक-दूसरे को युद्ध के लिये ललकारने लगा। उस जगह मदोन्मत्त हाथी कब्जे में नहीं आ रहे थे, ऐसी दशा हो गयी। ऐसी स्थिति में कायरों की तो बात ही क्या है! कच्चे दिल के लोग फूँस-जैसे उड़ गये; मानो प्रत्यक्ष यमराज को देख रहे हों, उनके पैर ठिकाने पर नहीं लग रहे थे। उनमें से कइओं के तो खड़े-खड़े ही प्राण निकल गये। जो धैर्यवान् थे, उनकी बोलती बंद हो गयी और ‘मैं-मैं’ बोलने वाले नामांकित वीर थर-थर काँपने लगे। युद्ध के बाजों का भयानक शब्द सुनकर विधाता व्याकुल-से (भयभीत) हो गये और देवगण कहने लगे कि आज शायद प्रलयकाल ही आ पहुँचा है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (131-136)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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