श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः। अनेक प्रकार के रणवाद्य जहाँ-तहाँ इतने भयंकर और कर्कश बजने लगे कि, ‘मैं-मैं’ बोलने वालों को भी वो महाप्रलय लगा। नगारे, डंके, ढोल, शंख, बड़ी झाँझ और रणसिंघे और महायोद्धाओं की भयंकर गर्जना (इन सबकी एकाएक भीड़ हो गयी।) अन्य कितने ही योद्धा आवेश में आकर ताल ठोंकने लगे, कोई एक-दूसरे को युद्ध के लिये ललकारने लगा। उस जगह मदोन्मत्त हाथी कब्जे में नहीं आ रहे थे, ऐसी दशा हो गयी। ऐसी स्थिति में कायरों की तो बात ही क्या है! कच्चे दिल के लोग फूँस-जैसे उड़ गये; मानो प्रत्यक्ष यमराज को देख रहे हों, उनके पैर ठिकाने पर नहीं लग रहे थे। उनमें से कइओं के तो खड़े-खड़े ही प्राण निकल गये। जो धैर्यवान् थे, उनकी बोलती बंद हो गयी और ‘मैं-मैं’ बोलने वाले नामांकित वीर थर-थर काँपने लगे। युद्ध के बाजों का भयानक शब्द सुनकर विधाता व्याकुल-से (भयभीत) हो गये और देवगण कहने लगे कि आज शायद प्रलयकाल ही आ पहुँचा है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (131-136)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |