ज्ञानेश्वरी पृ. 125

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-5
कर्म संन्यास योग

अर्जुन की ये सब बातें सुनकर श्रीकृष्ण को बड़ा ही आनन्द आया और उन्होंने सन्तोषपूर्वक कहा-“हे पार्थ! अब मैं तुम्हें वैसा ही सहज और सुखद साधन बतलाता हूँ, जैसा कि तुम चाहते हो; ध्यानपूर्वक सुनो।” हे श्रोतावृन्द! श्रीकृष्ण का यह कथन एकदम यथार्थ है; क्योंकि जिस सौभाग्यशाली बालक की माता साक्षात् कामधेनु ही हो, यदि वह अपने खेलने के लिये खिलौने के रूप में चन्द्रमा माँगे तो वह भी उसे मिल जाता है। देखों, जिस समय उपमन्यु पर भगवान् शिव प्रसन्न हुए थे और उपमन्यु ने उनके दूध-भात खाने की इच्छा प्रकट की थी, उस समय उपमन्यु की वह इच्छा पूरी करने के लिये भगवान् शिव ने उसे क्षीरसागर ही दे दिया था, अथवा नहीं? इसी प्रकार जो श्रीकृष्ण उदारता के गुणों की खान ही हैं, वे यदि वीर शिरोमणि अर्जुन पर प्रसन्न हो गयें हों, तब फिर अर्जुन को सब प्रकार के सुखों का आश्रय क्यों न प्राप्त हो? इसमें आश्चर्य ही क्या है? यदि श्रीलक्ष्मी पति-जैसा ऐश्वर्यवान् मिल जाय तो अपनी इच्छानुकूल सब चीजें उनसे अवश्य ही माँग लेनी चाहिये। इसीलिये अर्जुन ने जिस ज्ञान की याचना की थी, वह ज्ञान श्रीकृष्ण ने उसे अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक दिया। अब हम यह बतलाते हैं कि श्रीकृष्ण ने उससे क्या कहा। आप सब लोग ध्यानपूर्वक सुनिये।[1]


श्रीभगवानुवाच
सन्न्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगी विशिष्यते ॥2॥

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-“हे कुन्तीसुत, यदि कर्म संन्यास और कर्मयोग-इन दोनों का अच्छी तरह से विचार किया जाय तो सिद्ध होता है कि तत्त्वतः दोनों ही मोक्ष प्राप्त करने के मार्ग हैं। फिर भी ज्ञानी और अज्ञानी सब जीवों के लिये यह कर्मयोग ही स्पष्ट और सुगम मार्ग है। जैसे किसी जलाशय को पार करने के लिये नौका स्त्रियों और बालकों तक के लिये उपयोगी होती है, वैसे ही यदि तारतम्य का विचार किया जाय तो सब प्रकार के जीवों को भवसागर तरने के लिये यह कर्मयोग ही समानरूप से सुलभ है। यदि इस कर्मयोग का अच्छी तरह से आचरण किया जाय तो कर्म संन्यास का फल भी स्वतः प्राप्त हो जाता है। अब मैं तुम्हें संन्यासियों के लक्षण बतलाता हूँ जिससे तुम्हें कर्म-संन्यास और कर्मयोग की अभिन्नता का ज्ञान बहुत सहज में ही हो जायगा।[2]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (1-14)
  2. (15-18)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः