श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
जिस प्रकार सूर्य का बिम्ब बहुत-छोटा-सा दिखायी पड़ता है, पर उसका प्रकाश इतना व्यापक होता है कि त्रिभुवन में भी नहीं समाता, उसी प्रकार आपको इस कथा के शब्दों की व्यापकता का भी अनुभव होगा अथवा जैसे कल्प वृक्ष याचना करने वाले याचक की इच्छानुकूल फल देता है, ठीक वैसे ही इस वाणी की व्यपकता भी श्रोताओं की इच्छानुसार कम या अधिक होगी। इसलिये आप सब लोग दत्तचित्त होकर सुनें। पर अब अधिक कहने की जरूरत नहीं है। जो लोग सर्वज्ञ हैं, उनको अपने-आप समझ में आता है इसलिये और अधिक क्या कहा जायǃ मेरी एकमात्र विनती है कि आप लोग देकर सुनें। जैसे किसी स्त्री में लावण्य, गुण और कुलीनता के साथ-ही-साथ पातिव्रत्य भी रहता है, वैसे ही इन पंक्तियों में साहित्य का ललित गुण तथा शान्त रस-इन दोनों का ही समावेश स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है, शान्त रस को साहित्य के अलंकार की जोड़ी लगायी है। एक तो चीनी (खाँड़) यूँ ही लोगों को रुचिकर है, तिस पर यदि वह दवा के रूप में दी जाय तो फिर वह बार-बार प्रसन्नतापूर्वक क्यों न खायी जाय? मलयवायु स्वभावतः मन्द और सुगन्धित होती है, तिस पर यदि उसे अमृत का स्वाद मिल जाय और संयोग से उसमें सु-स्वर भी उत्पन्न हो जाय, तब वह अपने स्पर्श से शरीर के समस्त अंगों का ताप शान्त करती है, रुचिकर स्वाद से जिह्वा को आनन्द से नचाती है तथा श्रवणेन्द्रियों को तृप्त करते उनसे ‘वाह! वाह! का उद्गार निकलवाती है। इस प्रकार इस कथा का श्रवण करने से श्रवणेन्द्रियों के व्रत का पारण हो जाता है अर्थात् श्रवणेन्द्रियों की तृप्ति हो जाती है और बिना किसी नुकसान के संसार के समस्त दुःखों की निवृत्ति हो जाती है। यदि मन्त्र से ही शत्रु की मृत्यु हो जाती हो, तो फिर कमर में कटार बाँधने की क्या जरूरत है? यदि दूध और शक्कर से ही रोग निवृत्त होता हो, तो फिर नीम के रस का पान क्यों किया जाय? इसी प्रकार बिना मन-मारे और बिना इन्द्रियों को कष्ट दिये सिर्फ यह कथा सुनने से ही स्वतः मोक्ष प्राप्त हो जाता है, इसलिये श्रीनिवृत्ति नाथ का शिष्य ज्ञानदेव कहता है कि आप सब लोग उतनी ही शान्तिपूर्वक गीता का यह अर्थ मनोयोगपूर्वक श्रवण करें।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (209-225)
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